भावी का भजन

भावी का भजन..

जिस जगत में हम रहा करते है उसे हम लौकिक जगत के नाम से संबोधन देते है..

इसी प्रकार भाव से ओत प्रोत भावी (भक्त) का भी अपना एक विलक्षण (बहुत ही अलग) भाव जगत है..
वह भाव जगत जिस में वह अपने प्रेमास्पद (जिसके प्रति वह भाव रखता है) जो की श्री कृष्ण या अन्य भगवान् है..
उन अविनाशी से वह कुछ चरणों (स्टेज) में प्रेम करने लगता है..

जो है..

1-प्रेम..
2-आसक्ति..
3-व्यसन..

वस्तुतः प्रेम, प्रेमी और प्रेमास्पद यह तीनों एक ही रस के तीन खंड है..

1-प्रेम--
इस चरण में प्रेमी प्रेमास्पद से प्रेम के आनंद का अनुभव करते हुए संसार से भी जुड़ा हुआ रहता है..

2-आसक्ति--
यह वह दशा है जिसमे प्रेमी किसी भी कार्य को प्रेमास्पद "से" जोड़ कर ही कार्य को करने में रूचि रखता है..

3-व्यसन---
इस अवस्था के आते ही प्रेमी का सब कुछ जैसे स्वतः ही छूटने लगता है..
उसे केवल ध्यान रह जाता है तो बस अपने प्रेमास्पद का..
अब यहाँ उसे अपने प्रेमास्पद को हर बात में याद करने की या जोड़ने की आवश्यकता नहीं रह जाती..

इस दशा में प्रेमास्पद जैसे प्रेमी के रक्त में ही मिल जाता है..
हर समय केवल प्रेमास्पद का चिंतन ही प्रेमी के लिए जैसे अनूठी प्रसन्नता का विशेष कारण बन जाता है..

तब यह हाल होता  है कि वह निकट से निकट रहने वाले व्यक्ति, वस्तु या कार्य में भी रूचि लेने में एक भारी बोझ का अनुभव करता है...क्योंकि..
अब जिस व्यसन में वह स्वयं बह चला है..उसमे किसी और की स्मृति बनी रहे....ऐसी कोई भी व्यवस्था नहीं..
यदि है भी..तो वो केवल इतनी ही..कि जब वह व्यक्ति, वस्तु या  कार्य सामने होगा तब किसी के आग्रह उपरांत वह असंतुष्टि से उसे मन न होने के साथ कुछ महत्त्व देगा भर..

तत्पश्चात उससे बचते हुए फिर वापस अपने प्रेमास्पद के चिंतन में बहने लगेगा..

वह चिंतन जिसमे प्रेमी को परम सुख का अनुभव होता है..
जिससे वह कभी उभारना ही नहीं चाहता..
व् जब उस दिव्य चिंतन का आविर्भाव जब किसी साधक के जीवन में होता है तो उसके ह्रदय में प्रभु (प्रेमास्पद) की दिव्य लीलाएं प्रकाशित हो जाती है..जो अकथनीय है..
जिनके दर्शन कर प्रेमी फिर किसी भी और व्यक्ति या वस्तु विशेष की आसक्ति से जुड़े रहने में असमर्थ हो जाता है..

"तब" उस अवस्था में उस प्रेमी का प्रेमास्पद के प्रति जो भाव है..वही भाव ही उसका सर्वक्षेष्ठ भजन बन जाता है....!

श्री राधे....🙌

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