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द्विदल सिद्धान्त भाग 3
भजनदास जी बतलाते हैं- ‘तीव्र प्रेम का यह रूप है कि तन से तन, मन से मन, प्राण से प्राण एवं नेत्र से नेत्र मिले रहने पर भी चैन नहीं मिलता’।
तन सौं तन मन सौं जु मन मिले प्राण अरू नैन।
तीव्र प्रेम को रूप यह तऊ हिेये नहि चैन।।
साधारणतया विप्रलम्भ से संयोग की पुष्टि मानी जाती है। इस सम्बन्ध में यह कारिका प्रसिद्ध है:-
न विप्रलंभेन सभोग: पुष्टिमश्नुते।
कषायिते हि वस्त्रादौ भूयान् रागोहि वर्धते।।
श्री रूप गोस्वामी ने ‘उज्ज्वल नीलमणि’ में इस कारिका को स्वीकृति-पूर्वक उद्धृत किया है एवं मधुर रस का पूर्ण परिपाक ‘समृद्धिमान संयोग’ में माना है। समृद्धिमान् संयोग का लक्षण यह किया है ‘पारतन्त्रय के कारण वियुक्त एवं एक-दूसरे को देखने में असमर्थ नायिका-नायक के उपभोग के आधिक्य को समृद्धिमान संयोग कहते हैं।
दुर्लभालोकयो र्यूनो: पारतन्त्र्यद्वियुक्तयो:।
उपभोगातिरेको य: कीर्त्यते स समृद्धिमान्।।[1]
नित्य-विहार में श्री युगलकिशोर अत्यन्त समृद्ध संयोग का ही अनुभव करते हैं, किन्तु उसका नियोजक दुर्लभ-दर्शन एवं पारतन्त्र्य नहीं है। यहां प्रेम का स्वरूप ही ऐसा है कि क्षण क्षण में नवीन रूचि के तरंग उठते रहते हें और श्रीराधा-माधव प्रतिक्षण एक दूसरे के सर्वथा नवीन स्वरूप का आस्वाद करते रहते हैं।
आलकांरिकों ने विप्रलम्भ श्रृंगार के चार भेद बतलाये हैं-पूर्वानुराग, प्रवास, मान, एवं करूणा। नित्य-विहार में पूर्वानुराग, प्रवास एवं करूणा के लिये तो स्थान ही नहीं है, केवल ‘प्रणय-मान’ का ग्रहण किया गया है, और वह इसलिये नहीं कि मान के द्वारा संयोग की पुष्टि होती है, किन्तु इसलिये कि इसमें प्रेम के एक आवश्यक अंग का प्रकाशन होता है। प्रेम का वह अंग है उसकी सहज कुटिल गति, उसकी स्वाभाविकवामता। एक श्लोक प्रसिद्ध है कि ‘नदियों की, बंधुओं की, भुजंगों की एवं प्रेम की गति अकारण वक्र होती है’।
नदीनां च वधूनां च भुजंगानां च सर्वदा।
प्रेशर गतिर्वक्रा कारणं तत्र नेष्यते।।
जहां प्रेम उत्कर्ष को प्राप्त होता है वहां उसकी वामाता प्रकाशित हुए बिना नहीं रहती। इसीलिये नित्य-विहार में निर्हेतुक प्रणय-मान को स्वीकार किया गया है और यहां इसके बडे़ सुन्दर स्वरूप प्रत्यक्ष हुए हैं। प्रणय-मान की निहेंतुकता व्यंज्जित करने के लिये श्री वृन्दावन में ऐसी कुंजों का वर्णन किया गया है जो ‘मान-कुंज’ कहलाती हे। वृन्दावन में प्रेम-विहार करते हुए नव-दंपति जब अनायास इनमें प्रविष्ट होते है, तब प्रिया की भ्रू-लता अकारण भंग हो जाती है और यह देख कर श्री श्यामसुन्दर अत्यन्त कातर भाव से अनुनय में प्रवृत्त हो जाते हैं।
मान कुंज आये जबहिं कुंवरि भौंह भईं भंग।
चितै लाल पांइनि परैं समुझि मान कौं अंग।।
ऐसे रस में हो प्रिये ऐसी जिय न विचार।
तासौं इती न चाहिये तन मन जो रहयौ हार।।
मेरें है गति एक, तुम पद-पंकज की प्रिये।
अपने हठ की टेक, छांडि़ कृपा करि लाडिली।।[1]
अहैतुक मान प्रेम का सहज अंग होने के कारण अनंत प्रकारों में घटित होता है। हित-चतुरासी में मान के अनेक प्रकार दिये हुए हैं। मोटे तौर पर इनको दो भेदों में बांटा गया है-निकुंजान्तर-मान और निकट-मान। निकुंजान्तर- मान में श्री राधा अहैतुक मानवती होकर कुजान्तर चमें चली जाती है और जब सहचरी गण उनको उनके प्रियतम की करूण-स्थिति का वर्णन सुनाती है, तब वह आतुर गति से उस कुंज की ओर चल पड़ती है जहां बैठे हुए श्री श्याम-सुन्दर उनके आगमन-मार्ग की ओर अधीर नेत्रों से देख रहे हैं। इस प्रकार के एक निकुंजांतर-मान के समय श्री राधा की आगाध प्रीति ‘अन्तर्गति’ बन गई थी, अपने आप में डूब गई थी। सखियों ने जब विदग्धता-पूर्वक उनको प्रियतम का स्मरण दिलाया, तब वह प्रीति उनके मन में मुकुलित हो उठी और दोनों रस-सागर निविड़-निकुंज में एक दूसरे से मिलकर उद्वेलित हो उठे।
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