भगवत व्याकुलता

Satyajeet Trishit
*भगवत-व्याकुलता प्रभु जी की कृपा*
भगवान की कृपा की महिमा क्या कही जाये । उनकी ही कृपा से तो उनके हेतु कुछ भाव फुलवारी सजती है । *भगवत-व्याकुलता , लोलुप्ता , भगवत-रस की प्यास , उत्कंठा , यह भगवत-विरह का दाह यह उनकी ही असीम कृपा है ।* किसी कर्म का परिणाम भगवत-लोलुप्ता नहीँ होता । किसी प्रकार के प्रयास से लोलुप्ता के , प्यास के , व्याकुलता के पुष्प नहीँ खिलते । भगवान की कृपा से हम भोगी जीवों को भगवान का अभाव अनुभूत होता है । आस-पास देखिये क्या सबको भगवत संग का अभाव होता है , कोशिशों से भी हर किसी में यह व्याकुलता उतारी नहीँ जा सकती , जब तक स्वयं भगवान ना चाहें । सत्संग भी असर उन पर करता है जिन पर वो कृपा करें । दर्शन भी डुबाता उन्हें है जिन पर वह कृपा करें । जहाँ भगवत प्रेम की प्यास लग गई , जिन्होंने सर्वस्व को भूल उन्हें प्रियतम जान लिया और मान लिया अर्थात उन पर भगवत कृपा है । भगवत कृपा को यहाँ हम क्यों ना उनका प्रेम ही जाने । कृपा शब्द तो भोग वृद्धि के लिये कहा जाने लगा । लोग अपने गाडी-भवन आदि पर भगवत-कृपा अनुभूत करते है । वैसे भगवान की सच्ची कृपा तो भगवान की व्याकुलता लगना है । और यह ही उनका अमोघ प्रेमबाण है । व्याकुलता कही सच में प्रकट हो गई अर्थात भगवान ने अपने प्रेम को प्रकट कर यह विरह अग्नि छोड़ दी , भगवान ने अपनी छब का असर छोड़ दिया , वरना हम भोगी जीव भगवान की लोलुप्ता के अभाव में भगवान के स्वरूप और श्रृंगार में डूब ही नहीँ सकते अपितु प्रदर्शनात्मक सेवा कर भगवान के श्रीविग्रह को ही सांसारिक भोगों से जोड़ देते है । प्यासा तो समस्त भूमण्डल ही क्या ? समस्त ब्रह्मांडों का प्रियतम हेतु त्याग के लिये खड़ा होता है । भगवत-प्रेम या भगवत-रस की अतृप्ति का मूल्य है । अतृप्ति अर्थात लोलुप्ता -प्यास -व्याकुलता - आग - विरह - आंतरिक रस - भगवत्कृपा का महाफल या उनका प्रेम जो असर बन गया और युगों की सूखी आंखे भीग गई । युगों तक हमारी आँख में क्यों भगवान के लिये नमी न आई क्यों अतृप्ति की अनुभूति न हुई । उनका प्रेम सहज प्रकट नहीँ होता , क्योंकि उनका प्रेम अपार तत्सुखिया है । जब एक अणु भर हम में कही से भगवत रस की लालसा आवें तो वह उसी क्षण उसे हमारा सुख मान भगवत विरह या लोलुप्ता को जीवंत कर देते है । फिर आग लग जाती है ज़माना जल जाता है । सब कुछ स्वतः छूट जाता है और पुकार उठती है । कही कोई साधन नहीँ असर करता बिना उनकी कृपा , बिना उनका प्रेम । प्रेम उन्हें सदा है , हमारी चाहते समस्या है वह मानने से प्रियतम नही हो जाते वह तो सदा ही , नित्य ही हमारे प्रियतम है , बस चाहत उजुल-फिजूल रहती हमारी , और प्रेमी होने के नाते हमारी चाहत पूरी हो यह उनका धर्म है । इससे उन्हें मिलन की अतृप्ति का सुख मिलता है और तत्सुख रस भी । हम चाहतों के कारण गलत जाते है पर वह हमारा सुख हमें लगता तो वह जगत रूप नित्य संग रहते है । हमारी चाहत वहीँ है , आप हाथी की माँग करोगे वो ही हाथी बन आएंगे , गाडी घर की करोगें वो ही वह बन आएंगे । हमारे लिये संसार बन जायेंगे , उनसे उनके लिये प्रेम की माँग करोगें तो फिर सब कुछ अंदर बाहर से हटा वहीँ आप में अनन्य रूप से बस जायेंगे । वह अभिन्न हो जाएंगे । उन्हें अथाह प्रेम है , उनकी कृपा से जगी प्यास उनके प्रेम का असर है । हमारी ओकात से , साधन से कभी भगवत-प्रेम सम्भव नहीँ । --तृषित ।।।

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