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मोरकुटी युगलरस लीला-33

जय जय श्यामाश्याम  !!
महारास की वेला में श्यामा श्यामसुंदर जु नृत्य रसक्रीड़ा को विश्राम देकर गलबहियाँ डाले खड़े हैं।भावनिमग्न युगल परस्पर हृदय की बढ़ रहीं संगीतमय पर अति व्याकुल धड़कनों को सुन रहे हैं कि अचानक उनकी व्याकुलता से व्याकुल पवन निकुंज में स्माधिस्थ कीर कोयल हंस हंसिनियों मयूर मयूरियों चकोर पपीहों में व्याकुलता रूप श्वास बन समाने लगती है।

        भावरस में बहते उतरते युगल प्रेम मुग्ध हुए अति व्याकुल होने लगे हैं।पराग से नित्य पल मकरंद झड़ कर श्यामा श्यामसुंदर जु को व्याकुलित कर रहा है।सहसा कोयल व्याकुलतावश"राधा राधा"पुकार उठती है और फिर चुप हो जाती है।तभी दूसरी ओर से भी"राधा राधा"नाम सुनाते चकोर व पपीहा मौन धारण कर लेते हैं।जैसे ही श्यामसुंदर यह अति व्याकुल राधा नाम ध्वनि सुनते हैं तो वंशी बजाना रोक देते हैं और क्षणभर की भी देरी ना करते हुए श्यामा जु को आलिंगनबद्ध कर अपनी दोनों भुजाओं में भर लेते हैं।

       दरअसल अत्यधिक व्याकुलतावश श्यामा जु को भीतर ही भीतर हृदयस्पर्शी विरहताप की अग्नि जलाने लगती है।यह देख श्यामसुंदर जु श्यामा जु की आँखों से बहती आंसुओं की झड़ी को अपने पीताम्बर से पोंछ उन्हें संवरित कर वहीं परागरूपी कोमल धरा पर अपनी गोद में मस्तक रख प्रेमरस वर्षा करने लगते हैं।धीरे धीरे वे श्यामा जु से कह रहे हैं-

"प्रिये !लखौ तुम सर्व-बिलच्छन अपनौ रूप अनूप। 
दोउ अनादि बिहरत-बिलसत हम,नव पद्धति,नव रूप।।
हम न रमन-रमनी जथार्थ मेँ,न स्वकीय-परकीय।
प्रकृति-पुरूषहू नहीँ,निरत नित सुचि क्रीडा कमनीय।।
निराकार-साकार न हम हैँ,निर्बिसेष-सबिसेष। नहीँ सगुन-निरगुन हम दोऊ,नहीँ सेषी,नहीँ सेष।।
माया-ब्रह्म,न मायामय हम,नहीँ ब्यक्त-अब्यक्त। 
प्रेम पूर्णतम,प्रेम-रस-रसिक,रसमय,रस-आसक्त।।  
नित नव बिकसत मधुर हमारौ रूप अनन्त,अपार।
बढ़त नित्य निष्काम कामना,नित्य नबीन बिहार।।
द्विभुज रूप,लावन्य ललित अति,अतुल,अनिर्बचनीय।
प्रेम-मूर्ति सुचि रूप-सुधा,सौँदर्य नित्य रमनीय।।       
प्रेम आत्मा,प्रेम बुद्धि-मन,इंद्रिय पूरन प्रेम। स्थूल-सूक्ष्म-कारन-बिरहित नित देहहु चिन्मय प्रेम।।
लीला सकल प्रेम-रसरूपा,नित नव प्रेमानंद।
नित्य अबाध,अपरिमित,नव-नव लीला-गति स्वच्छन्द।।   
सुर-मुनि समुझि न पाए या कौँ,गए जतन करि हार। 
नित्य अचिँत्यानंत,अनिर्बचनीय बिचित्र बिहार।।"

         श्यामसुंदर जु श्यामा जु से अपने प्रेमोद्गार कहते हुए उन पर प्रेम रस बहाते रसमग्न हो जाते हैं और यह सुन प्रिया जु भी मदहोशी में होश संभालती हुईं श्यामसुंदर जु को आलिंगनबद्ध कर लेतीं हैं।

"परम प्रेम-आनंदमय दिब्य जुगल रस-रूप। कालिँदी-तट कदँब-तल सुषमा अमित अनूप।।
सुधा-मधुर-सौँदर्य-निधि छलकि रहे अँग-अँग।
उठत ललित पल-पल विपुल नव-नव रूप-तरंग।।
प्रगटत सतत नवीन छबि दोऊ होड़ लगाय।
हार न मानत जदपि,पै दोऊ रहे बिकाय।।
नित्य छबीली राधिका,नित छबिमय ब्रज-चंद। बिहरत बृन्दा-बिपिन दोउ लीला-रत स्वच्छंद।।"

       श्रीयुगल भावरस निमग्न हुए परस्पर सुखरूप एक दूसरे में समाने लगते हैं।दोनों ही प्रेमी हैं।प्रेम में परस्पर आलिंखनबद्ध।कह पाना अति कठिन कि किसने किस को प्रेम आमंत्रण दिया है।दोनों ही परस्पर रस बरसाते घन और रसपिपासु अथाह सागर रूप।ऐसे एक मेक जैसे  कभी भिन्न थे ही नहीं।गौर कंचना श्यामा या नीलवर्ण घनरूप श्याम।बीज वृक्ष हुआ या वृक्ष बीज।विलक्षण प्रेम की गहन विलक्षणता क्षमता।

"मन्मथ-मन्मथ मन मथत जाकेँ सुषमित अंग। 
मुख-पंकज-मकरंद नित पियत स्याम-दृग-भृंग।।
जाके अंग-सुगंध कौँ नित नासा ललचात।
तन चाहत नित परसिबौ जाकौ मधुमय गात।।
मधु-रसमयि बचनावली सुनिबे कौँ नित कान।
हरि के लालाइत रह ,तजि गुरूता कौ भान।। 
जाके मधुर प्रसाद कौ मधु रस चाखन हेतु।
हरि-रसना अकुलात अति तजि दुस्त्यज श्रुति-सेतु।।
जाकी नख-दुति लखि लजत कोटि-कोटि रबि चंद।
बंदौँ तेहि राधा-चरन-पंकज सुचि सुखकंद।।"

       बलिहार  !!ज्यों कमल पुष्प पर बिछे पराग से मकरंद झड़ रहा हो और श्यामा श्यामसुंदर जु की पद थाप से मकरंद कणों से अद्भुत चूर कर देने वाला मधु मय बन कर श्यामा जु की देह से बह रहा हो।रसपिपासु भ्रमर बन श्यामसुंदर जु मद में चूर उस दिव्य मधु का रसपान अपने अधरों से कर रहे हों।सच अद्भुत प्रेम रस भाव से सराबोर रसिक हृदय और अद्भुत रस रसीले श्यामा श्यामसुंदर अति छबीले।

जय जय युगल  !!
जय जय युगलरस विपिन वृंदावन !!

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