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मोरकुटी युगलरस लीला-25

जय जय श्यामाश्याम  !!
सम्पूर्ण निकुंज का वातावरण रससार हो चुका है।मयूर मयूरी के नृत्य से आरम्भ होकर श्रीयुगल जु की नृत्य रसक्रीड़ा में गहन भाव उतरते उतरते अब सखियों व युगल पक्षियों का समिलित भाव भी सहज प्रकट हो रहा है।श्यामसुंदर जु की रसक्रीड़ा में प्रेम भरी रूचि देख श्यामा जु अत्यंत भावविभोर हो उठीं हैं और उनके हृदयुद्गार उनके चेहरे व नेत्रों में झलक कर बह रहे हैं।प्रकृति में सुघड़ भावपूर्ण छोटे छोटे व तीव्र बदलाव श्यामा जु की भावभंगिमाओं का अति भावुक चित्रण कर रहे हैं।

         यमुना जल तरंगों की लय से तैरते हंस हंसिनी अपने पंखों को फैला कर फड़फड़ाते हुए जलतरंग से टकरा देते हैं जिससे मधुर जलध्वनि संगीत बज उठता है।यमुना तट पर पल पल खिल रहे पुष्प भी किनारों से बहते हुए सुंदर मनमोहक आकृतियाँ बना रहे हैं।कहीं"राधे"तो कहीं"कृष्ण" लिखा जा रहा है और अंत में जल तरंगों व पवन झोंकों से सब घुल मिल जाते हैं और एकरूप हो जाते हैं।

        इन सबके बीच सहसा एक उन्मादिनी सखी मयूर को नाचते देख उसके संग नाच उठती है।आँखों से अश्रु देह कम्पित खनकते पाजेब कंकन हिलते कर्णफूल नथ बेसर चमकती बिंदिया चटकती चूड़ियाँ पुष्पों से सजी वेणी ना जागी ना सोई सी आनंदित अह्लादित उल्लसित ना जाने किन उमंगों से सजी उसकी कंचुकी लहंगा और चुनरी।अंजान सबसे नेह भरी रस सी बहती एक दम से नाच उठी।ललिता सखी जु की वीणा की तारों से उलझी सुलझी उसकी अंगकांति युगल को नेत्रों में बंद कर हृदय से दिखलाती है।प्रेम की महक दम घुटते भी आ रही है और बहका हुआ सा अंदाज-ए-ब्यां जैसे भावतरंग बन बह चली है।

     सखी को देख ऐसा लगता है जैसे वह कोई सहचरी प्यारी जु के अंतरंग भाव ले नाच उठी है।जैसे ही श्यामा जु सखियों पर पुष्प बरसाते श्यामसुंदर जु को देख आनंद से आकुल व्याकुल होतीं हैं उसी क्षण यह भावभंगिमा रसस्कित उठ नाचने लगी।श्यामा जु की कायव्यूहरूप सखी जो अपलक निहार रही थी रसक्रीड़ा में होते हुए भी केवल श्यामा जु और उनके भावों को ही।श्यामसुंदर जु के झुले से उठते ही श्यामा जु के मुख पर जो भाव उठे यह जैसे उन्हीं भावों की प्रतिछवि हो।

समस्त सखियाँ एक साथ गा उठतीं हैं-

"स्याम विमल गुन सुनत गोपिका तन-धन सकल भुलानी हो।
मन हर लियौ स्याम-गुन ताकौ,सो बिनु मोल बिकानी हो॥
रंग-भरे,रस-भरे,गुन-भरे मोहन रस के खानी हो।
करी ताहि सब भाँति अकरमी,दुख-सुख रहित दिवानी हो॥
रोवत कबहुँ, हँसत, बिलपत अति, निरतत, रहत चुपानी हो।
कबहुँ प्रेम-रस बरनत बहु बिधि भाव निमग्र सयानी हो॥
कबहूँ असंबद्ध बोलत,बहु करत प्रलाप,परानी हो।
भ‌ई बिचित्र दसा गोपी की प्रेम-समुद्र समानी हो॥
पूर्वराग के परम प्रेम की मूरति प्रिय-मन मानी हो।
धन्य-धन्य रसमयी गोपिका दिव्य प्रेम सहदानी हो॥"

      श्यामा जु व अन्य सखियाँ उन्मादिनी सखी को देख स्पंदित हो जातीं हैं।श्यामा जु उठ कर उसे कंठ लगा लेना चाहतीं हैं पर श्यामसुंदर जु रस अधीर हुए श्यामा जु को रोक लेते हैं जैसे वे चाह रहे हों अभी रूको।कुछ विलम्ब से श्यामा जु के भाव गहरा जाएंगे और उनकी कायव्यूह गोपिका और अधिक थिरकेगी।
     
       श्यामसुंदर जु अपनी फेंट से निकाल वंशी पर मधुर धुन छेड़ देते हैं।सखियाँ ताल मिलाती फिर से गान करतीं हैं -

"केवल तुहें पुकारूँ प्रियतम ! देखूँ एक तुहारी ओर।
अर्पण कर निजको चरणों में बैठूँ हो निश्चिन्त, विभोर॥
प्रभो ! एक बस,तुम ही मेरे हो सर्वस्व सर्वसुखसार।
प्राणोंके तुम प्राण,आत्माके आत्मा आधेयाऽधार॥
भला-बुरा,सुख-दुःख,शुभाशुभ मैं,न जानती कुछ भी नाथ !।
जानो तुहीं,करो तुम सब ही,रहो निरन्तर मेरे साथ॥
भूलूँ नहीं कभी तुमको मैं,स्मृति ही हो बस, जीवनसार।
आयें नहीं चित-मन-मति में कभी दूसरे भाव-विचार॥
एकमात्र तुम बसे रहो नित सारे हृदय-देश को छेक।
एक प्रार्थना इह-पर में तुम बने रहो नित सङङ्गी एक॥"

        बलिहार  !!अद्भुत रसिकवर व अद्भुत भावरस उच्छल्लन।सखी अपनी श्रीप्रिया जु के भाव जान रही और वहीं रसिक हृदय सखी के हृदय की जान एकरस हो रहे।अद्भुत युगल प्रेम जो अपने से और अपनों से अभिन्न अभिव्यक्ति करा कर रसक्रीड़ा को गहराता जा रहा जिससे प्रकृति श्वास दर श्वास नित नव संचालित हो रही है।
क्रमशः

जय जय युगल  !!
जय जय युगल रसलीला विपिन वृंदावन  !!

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