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मोरकुटी युगल लीलारस-23

जय जय श्यामाश्याम !!
मोरकुटी में श्यामा श्यामसुंदर जु नित्य भाव रसक्रीड़ा में तन्मय होकर हंस हंसिनी द्वारा गाए जा रहे प्रेम राग सुन रहे हैं।सखियों के हृदय भी अह्लाद से भर चुके हैं।हंस हंसिनी की परस्पर रसक्रीड़ा में भी वह अपने प्राणप्रियतम व प्रियतमा जु की सराहना करते यमुना जु में अद्भुत गहन रसडुबकियाँ ही लगा रहे हैं।ऐसा सुंदर समय बंधा है कि इन घड़ियों को पक्षियों सहित सखियाँ व युगल जीने लगे हैं और कोई नहीं चाहता यह रस कहीं थमे।

      श्यामा श्यामसुंदर जु झूले पर गलबहियाँ डाले बैठे हैं।रस पिपासु सखियाँ खूब आनंद में हैं।उनसे रहा नहीं जाता और झट से युगल की झूलन क्रीड़ा को निरखती अपने अपने वाद्य यंत्र उठा बजाने लगतीं हैं।स्वतः ही सबके मुख से एक साथ एक ही राग रसरूप झर पड़ता है।सब मिल गा उठती हैं-

"हिंडोरें झूलत स्यामा-स्याम|
नव नट-नागर,नवल नागरी,सुंदर सुषमा-धाम||
सावन मास घटा घन छाई,रिमझिम बरसत मेह|
दामिनि दमकत,चमकत गोरी,बढ़त नित्य नव नेह||
कल्पद्रुम-तल सीतल छाया रतन-हिंडोरा सोहै|
झूलत प्रीतम-प्रिया ताहि पर,चित्त परस्पर मोहै||
नील-हेम तनु पीत-नील पट सोहत सरस सृंगार|
चंचल मुकुट,सुचारु चंद्रिका,गल मुक्तामनि-हार||
सखि ललितादिक देत झकोरे,मिलत अंग-प्रति-अंग|
गावत मेघ-मलार मधुर सुर,बाजत ढोल-मृदंग||
हँसत-हँसावत रस बरसावत सखी-सहचरी-बृंद|
उमग्यौ आनँद-सिन्धु,मगन भए दोऊ आनँद-कंद||"

            प्रियाप्रियतम सुख हेतु गाए पद सुन कर निकुंज में पवन संग सरसराते झूमते वृक्षों पर लगे एक एक फल पुष्प इत्यादि रसभरपूर हो रस टपकाने लगे हैं और जिस वृक्ष के नीचे श्यामा श्यामसुंदर जु झूले पर विराजे हैं वहाँ के सुंदर महकते पुष्प तो पराग मकरन्द झर झर करते युगल के ऊपर अपना अपार नेह वर्षा रूप बरसाने लगे हैं।श्यामा श्यामसुंदर जु भी पलकें झपकाते ऊपर से गिर रहे नेह मकरंद को देख अति प्रसन्न होते हैं और क्षण क्षण में बढ़ रहे प्राकृतिक सौंदर्य को निरख अति सुहा रहे हैं।

    तभी वृंदा देवी जु गा उठती हैं और सखियाँ वाद्यों पर ताल मिलाती उनका साथ देतीं हैं-

"परम प्रेम-आनंदमय दिब्य जुगल रस-रूप। कालिँदी-तट कदँब-तल सुषमा अमित अनूप।।
सुधा-मधुर-सौँदर्य-निधि छलकि रहे अँग-अँग।
उठत ललित पल-पल विपुल नव-नव रूप-तरंग।।
प्रगटत सतत नवीन छबि दोऊ होड़ लगाय।
हार न मानत जदपि,पै दोऊ रहे बिकाय।।
नित्य  छबीली राधिका,नित छबिमय ब्रज-चंद। बिहरत बृन्दा-बिपिन दोउ लीला-रत स्वच्छंद।।"

      ललिता व विशाखा सखी जु उठ प्रसन्नचित्त राधे श्याम जु को झूला झुलाने लगतीं हैं और अपने प्रेमुद्गार एक साथ गा उठतीं हैं-

"हमारे जीवन लाड़िलि-लाल।
रास-बिहारिनि रास-बिहार,लतिका हेम तमाल।।
महाभाव-रसमयी राधिका,स्याम रसिक रसराज।
अनुपम अतुल रूप-गुन-माधुरि अँग-अँग रही बिराज।। 
दोउ दोउन हित चातक,घन प्रिय,दोउ मधुकर,जलजात।
प्रेमी प्रेमास्पद दोउ,परसत दोउ दोउन बर गात।। 
मेरे परम सेव्य सुचि सरबस दोउ श्रीस्यामा-स्याम।
सेवत रहूँ सदा दोउन के चरन-कमल अभिराम।।"

        राग की लय रूकने ना पाए तो अब चित्रा सखी व इन्दुलेखा जी गाने लगतीं हैं-

"प्रिया-प्रीतम नित करत बिहार।
नित्य निकुंज परम सोभन सुचि माया-गुन-गो-पार।।
नहिँ तहँ रबि-ससि की दुति,नहिँ तहँ भौतिक अन्य प्रकास।
नित्य उदित दिव्याभा तनु की छाई रहत अकास।।
जिन की पद-नख-प्रभा ब्रह्म बनि ग्यानी-जन-मन छाई।
जिन की ही सत्ता-प्रभुता सब जग में रही समाई।।
जिन के हास-बिलास-रास-रस सब निरगुन हरि-रूप।
मायिक गुन प्रबसित न तहाँ,चिन्मय सब वस्तु अनूप।।
दिव्य निकुंज मध्य नहिँ संभव असरीरी-अस्तित्व।
बिलसित नित्य दिव्य अति भगवद्-रूप प्रेम कौ तत्व।।
सखी-मंजरी,सज्या-सोभा,लीला-साधन अन्य।
सबहि स्याम-स्याममय,प्राकृत नाम,भए ते धन्य।।
कहत-सुनत-समझुत सोइ मानव,जो तजि भोगासक्ति।
रहत निरंतर सेवा-रत,जो करत भाव-रस भक्ति।।
सोइ देखत निकुंज की लीला अनुपम दिव्य महान।
जिन को दै अधिकार दिखावत स्वयं जुगल भगवान।।"

        बलिहार !!इस पद को गातीं सखियाँ श्यामा श्यामसुंदर जु के अद्भुत अप्राकृत प्रेम की अति सुंदर व्याख्या करतीं हैं और साथ ही ललिता व विशाखा सखी जु सम सेवारत सखियों के तत्सुख प्रेम पर प्रकाश डालती हैं।स्वयं की भावनाओं को उजागर ना कर सखियाँ युगल व मञ्जरी भावयुक्त समस्त सखियों के हृदय की वीणा के तारों को छेड़ देतीं हैं।इस रस को केवल रसिकगण ही समझ सकते हैं जिनमें नारी पुरूषत्व का भाव लुप्त हो चुका है और युगल कृपा से वही श्यामा श्यामसुंदर जु की विशुद्ध रसक्रीड़ाओं को समझ कर आनंद पा सकते हैं।
क्रमशः

जय जय युगल  !!
जय जय युगलरस विपिन वृंदावन  !!

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