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मोरकुटी लीलारस-13
जय जय श्यामाश्याम !!
परस्पर श्यामा श्यामसुंदर जु के सुखरूप रसिक भ्रमर रस लालसा हेतु भाव बन युगल में प्रवेश पाकर स्वयं रस जड़ता को प्राप्त होते हैं।भ्रमरी के हृदय में जो भाव सफुर्ति है वह जड़ रूप होने के उपरांत हिम रूप हो चुकी थी।बाहर भीतर से कोई ताप महसूस नहीं हो रहा।मोरकुटी में अंतर्मुखता की गहन परिधियों में डूबी भ्रमरी को आज ललिता सखी जु के वीणा के तारों की ध्वनि छेड़ दिया है।
प्रियालाल जु के मयूर मयूरी स्वरूप को अपने अंतर्मन में निहारती यह भ्रमरी जैसे ही नेत्र खोलती है इसके नेत्र से एक हिमकण बह निकलता है।यह हिमकण जैसे युगों की प्रतीक्षा कर आज ही बह पाया तो इसकी गहनता गम्भीरता इसे आवरित किए हुए है जिसे छुड़ाने के लिए ताप के साथ साथ थिरकन भी अनिवार्य और प्रकट ही है इस पावन भजन स्थली पर।
श्यामा श्यामसुंदर जु अपलक एक दूसरे को निहार रहे हैं।उनको इस नृत्य श्रृंख्ला में गहन नेत्र सुख मिल रहा है।सखियों के निहारने में भी गहन नेत्र सुख है अपने प्रियालाल जु के सुख अनुरूप।परस्पर निहारते युगल के नेत्रों से करूणा व प्रेम के प्याले रस रूप भर भर छलक रहे हैं जिसका सीधा असर सखियों के नेत्रों से तो छलछलाना स्वाभाविक है ही पर इस गहन रसरूप बहती श्यामाश्याम जु की कृपापात्रा यह प्रकृति भी है।यमुना जल में जब यह रस उतरता है तो यमुना जी का प्रवाह तीव्र हो उठता है और जब पवन इस रस को छू कर बहती है तो उसमें भी एक गहन अह्लाद भरा होता है जिससे वह सर्वत्र ब्रह्मांड में युगल प्रेम के अणुओं को ले उड़ती है।वैसा ही असर धरा पर भी होता है जो पल पल अंकुरित होती अपनी भावसेवा से नव पुष्प खिलाने को आतुर रहती है जिसे यह अपने प्रियालाल जु के चरणों में अर्पित कर सके।धरा की रज को सदैव इंतजार रहता है कि इसके गर्भ में कोई ऐसा अणु समाए जो श्यामा श्यामसुंदर जु के प्रेमलिप्त भावों से उजागर हो उन्हें सुख देने हेतु पनपे और फिर उन्हीं में समाने के लिए अर्पित होने के लिए उनके चरणों में न्योच्छावर हो जाए।
श्यामा श्यामसुंदर जु का मिलन कोई साधारण प्रेम मिलन नहीं है।यह तो पुरूष प्रकृति का वह गहन प्रेमालिंगन है जिससे प्रकृति श्वास ले सदा नव नवायमान चिरकालीन प्रेमरस को बहाती रहे और सर्वत्र प्रेम ही प्रेम हो।यहाँ प्रकृति भी प्रियतम सुख हेतु सदा ललायित है।
प्रियालाल जु के लीला दौरान परस्पर निहारने में भी प्रकृति प्रेम के तथ्य छुपे हैं।जैसे सखियाँ श्यामा श्यामसुंदर जु सुख अनुरूप इन क्षणों को हृदय में संजोती हैं और प्रियालाल जु भी उन्हें इन पलों का आनंद प्रदान करते हैं ऐसे ही प्रकृति में भी लाड़ली लाल जु हेतु जो सुख देने की भावना है वह भी इस रस से फलित होती है।सच ही तो है जब दो प्रेमी मिलते हैं तो पूरी कायनात उन्हें मिलाने का हेतु बनती है तो यह तो अप्राकृत राज्य की अप्राकृत प्रेम लीला है जिसमें लीलाधर प्रकृति में नवरस संचार हेतु अपनी प्राणप्रियतमा से एक होने जा रहे हैं।
बलिहार !!भिन्न दिखने वाला कण कण जुटा है एक अभिन्न सेवा में जो केवल और केवल प्रियालाल जु के मिलन का हितु है और प्रियालाल जु का मिलन कण कण से प्रेम उपजाने का हितु।ऐसा ही एक अंकुर धरा के गर्भ में समा जाने के लिए हिमकण रूप छलक गया है भ्रमरी के नयन कोर से।अद्भुत गहन रसिक हृदय का भजन व अद्भुत गहन इस मोरकुटी धरा धाम का भजन स्थल।
क्रमशः
जय जय युगल !!
जय जय युगलरस विपिन वृंदावन !!
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