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द्विदल सिद्धान्त भाग 4

अतिशय प्रीति हुती अन्‍तर-गति हित हरिवंश चली मुकलित मन।
निविड़ निकुंज मिले रस सागर जीते सत रतिराज सुरत रन।।

श्री हित प्रभु को निकट-मान अधिक रूचिकर और सेवक जी ने अपनी वाणी के अंतिम प्रकरण में उसी का व्‍याख्‍यान किया है। निकट-मान का बड़ा सरस वर्णन भी हितप्रभु ने अपने एक पद में किया है। उन्‍होंने बतलाया है-‘एक बार प्रेम-विहार करते हुए श्री श्‍यामसुन्‍दर अपनी प्रिया की अदभुत अंग-शोभा का दर्शन करके -विथकित वेपथगात’ हो गये। नागरी प्रिया ने अधर-रस-दान के द्वारा उनको सावधान किया, दूसरे क्षण में हो वे प्रेम की दूसरी प्रबल तरंग में पड़ गये। उनको ऐसा प्रतीत हुआ कि उन्‍होंने प्रिया के मुख में ‘रसाल विंबाधरों को प्रथम वार ही देखा है और वे अत्‍यन्‍त दीनतापूर्वक प्रिया से अधर-रस-दान की प्रार्थना करने लगे। उनके इस विभ्रम को देख कर प्रिया मानवती हो गई और उनके इस अप्रत्‍याशित मान को देख कर श्‍यामसुन्‍दर विरह-दुख से अत्‍यन्‍त कातर एवं अधीर बन गये। प्रिया ने सदय होकर उनको भुजाओं में भर लिया और दोंनों के प्रीति-पूर्वक मिलने से कुछ ऐसे सुख की निष्‍पत्ति हुई कि उस दिन की सन्‍ध्‍या एक निमेष के समान व्‍यतीत हो गई।

हित हरिवंश भुजनि आकर्षे लै राखे उर मांझ।
मिथुन मिलते जु कछुक सुख उपज्‍यौ त्रु टिलव मिव भई सांझ।।

संयोग और वियोग के युगपत् अनुभव से केवल बाह्य आकार में कुछ-कुछ मिलने वाली प्रेम की एक तंरग है, जिसका वर्णन वृन्‍दावन-रस के रसिकों ने किया है और गौड़ीय-भक्ति - रस-साहित्‍य में भी जिसके वर्णन प्राप्‍त होते हैं। इस प्रेम-तरंग को ‘प्रेम वैचित्‍य’ कहते हैं। श्रीहितप्रभु ने इसका उदाहरण अपने राधा-सुधानिधि स्‍तोत्र में दिया है। उनहोंने कहा है - ‘प्रियतम के अंक में स्थित होते हुए भी अकस्‍मात् ‘हा मोहन’! कहकर प्रलाप करनेवाली, श्‍यामसुन्‍दर के अनुराग मद की विहृलता से मोहन अंगो वाली कोई अनिर्वचनीय श्‍यामा-मणि निकुंज की सीमा में उत्‍कर्ष को प्राप्‍त है’।

यहां पर निकटसंयोग में रहते हुए भी प्रेमोत्‍कर्ष के कारण श्री राधा के चित्‍त में वियोग का उदय हो गया है और उनका संयोगानुभव सर्वथा लुप्‍त हो गया है। संयोगानुभव के सर्वथा अभाव के कारण, प्रत्‍यक्ष संयोग होते हुए भी, प्रेम-वैचित्र्य की गणना वियोग के भेदों में की गर्इ है और वियोग का अनुभव एक-साथ नहीं होता। उधर संयोग और वियोग के युगपत् अनुभव की स्थिति, वृन्‍दावन-रस में आस्‍वादित होने वाले प्रेम का सामान्‍य लक्षण है। तथा अन्‍य रसों के साथ यह उसकी दूसरी भिन्‍नता है।

वृन्‍दावन-रस की तीसरी विलक्षणता रस-स्थिति सबन्धि‍नी है। इस रस-सिद्धान्‍त में भोक्‍ता और भोग्‍य-नायक और नायिका में-समान रस की स्थिति मानी गई है। श्री हितप्रभु ने युगल- राधामाधव- के रस को ‘समतूल’ कहा है, ‘दंपति रस समतूल’ एवं दोनों को एक-दूसरे के गुण गणों के द्वारा पराजित माना है -‘बनी हित हरिवंश जोरी उभय गुन गान मात’।

श्रीध्रुवदास जी इस सिद्धान्‍त को सपष्‍ट करते हुए कहते हैं - ‘राधामाधव प्रेम की राशि हैं और दोनों परम रसिक हैं। दोनों की एक वय है और दोनों में रस की स्थिति भी एक है। दोनों ने गाढ़ आलिंगन से विमुक्‍त न होने की टेक ले रखी है। इन दोनों में परस्‍पर प्रेम की अद्भुत रूचि सहज रूप से होती है इनको देखकर ऐसा मालूम होता है कि एक ही रंग दो शीशियों मे भर दिया गया है। श्‍याम के रंग से श्‍याम रँगी है, और श्‍याम के रँग से श्‍याम रँग रहे हैं। इन दोनों के तन, मन एवं प्राण सहज रूप से एक हैं; यह कहने भर को दो नाम धारण किये हुए हैं। कभी प्रिया प्रियतम हो जाती हैं और कभी प्रियतम प्रिया हो जाते हैं। इस प्रेम-रस में पड़कर इनको यह पता नहीं है कि रात-दिन किधर व्‍यतीत हो रहे हैं।

प्रेम रासि दोउ रसिक वर एक वैस रस एक।
निमिष न छूटत अंग अंग यहै दुहुनि कै टेक।।
अदभुत रूचि सखि प्रेम की सहज परस्‍पर होइ।
जैसे एकहि रँग सौं भरिये सीसी दोइ।।
श्‍याम रंग श्‍यामा रँगी श्‍यामा के रँग श्‍याम।
एक प्रान तन-मन सहज कहिवैं कौं दोउ नाम।।
कबहुँ लाडि़ली होत प्रिय, लाल प्रिया ह्रैं जात।
नहिं जानत यह प्रेम रस निसि दिन कहां विहात।।

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