द्विदल

द्विदल-सिद्धान्‍त

काव्‍य शास्‍त्र में श्रृंगार-रस के दो भेद माने गये हैं-संभोग श्रृंगार, विप्रलाभ श्रृंगार। प्रेमोपासकों ने भी श्रृंगार-तरू को द्विदल माना है। उसका एक दल संयोग है और दूसरा वियोग। श्रृंगार रस के दो भेद, पक्ष किंवा दल सबको स्‍वीकार हैं किन्‍तु इन दोनों दलों के स्‍वरूप, प्रभाव एवं पारस्‍परिक-सम्‍बन्‍ध के विषय में पर्याप्‍त मतभेद हैं। कुछ लोग श्रृंगार रस की पुष्टि संयोग में मानते हैं और कुछ वियोग में। वे दोनों यह भूल जाते हैं कि संयोग और वियोग में कोई एक यदि अपने आप में पूर्ण होता तो श्रृंगार को द्विदल होने की आवश्‍यकता न थी; उसकी पूर्ण अभिव्‍यक्ति किसी एक के द्वारा हो जाती। श्रृगार ने दो पत्‍ते धारण किये हैं, इसका अर्थ ही यह है कि उसके पूर्ण स्‍वरूप की अभिव्‍यक्ति इन इोनों के द्वारा होती है, एक के द्वारा नहीं। यह दोनों मिल कर ही सम्‍पूर्ण प्रेम को प्रकाशित करते हैं। श्री हिताचार्य ने चकई और सारस के दृष्‍टान्‍त से संयोग और वियोग की अपूर्णता को प्रगट किया है। प्रकृति में सारस नित्‍य-संयोग का प्रतीक है और चकई वियोग का। सारस वियुक्‍त होने पर जीवित नहीं रहता है और चकई प्रति-रात्रि वियोगज्‍वाला का पान करती रहती है। चकई की यह स्थिति देखकर सारस के मन में प्रसके प्रेम के प्रति सन्‍देह होता है और उससे कहता है ‘प्रियतम से वियुक्‍त होने पर तेरे प्राण तेरे शरीर में बेकार रहे आते है; और वह ऐसी स्थिति में, जब तुम दोनों के बीच में सरोवर का अन्‍तर, अन्‍धकार-पूर्ण रात्रि, बिजली की चमक और घन की गर्जना रहती है ! समझ में नही आता कि यह सब सहन कर लेने के बाद प्रात: काल तू प्रेम-जल -विहीन नेत्रों को लेकर कैसेट अपने प्रियतम के प्रति प्रेम का प्रदर्शन करती हैं ! श्रीहित हरिवंश कहते हैं ‘बुद्धिमानों, को सारस के उपरोक्‍त वचनों पर विचार करना चाहिये। अधिक कहने से तो क्‍या लाभ है, सारस के मन में यह सन्‍देह है कि परम दुखदायी वियोग की स्थिति में चकई के शरीर में प्राण कैसे रहे आते हैं।

सारस के वचनों को सुनकर वियोग-रस में निमग्‍न रहने वाली चकई को उसके ऊपर तरस आता है और वह कहती है, ‘हे सारस, अपनी प्रिया के वियोग को यदि एक क्षण के लिये भी तेरा शरीर सहन कर सकता और तेरे वियोग में यदि तेरी त्रिया को कामाग्नि-पान करना पड़ता तब तू हमारी पीर को समझ सकता था। यदि वैसी स्थिति में तू अपने शरीर को वज्‍ज्र का बनाकर धैर्य धारण कर सकता तब तेरी बात थी। तुम तो वियुक्‍त होने पर फौरन मर जाते हो; तुम्‍हारा मन वियोग के प्रभाव का अनुभव हो नहीं कर पाता’। श्रीहित हरिवंश कहते हैं-विरह के बिना श्रृंगार रस की स्थिति शोचनीय है, सदैव प्रिय के पास रहने वाला सारस प्रेम के मर्म को क्‍या जान सकता है?
इस प्रकार, संयोग और वियोग दोनों के अपूर्ण होने के कारण, रस की वही स्थिति आदर्श मानी जा सकती है जिसमें संयोग और वियोग एक साथ उपस्थित रहकर अपने भिन्‍न प्रभावों के द्वारा, प्रेम के एकान्‍त अनुभव को पुष्‍ट बनाते हों। ‘वृन्‍दावन रस’ में इसी स्थि‍ति का ग्रहण किया गया है। संयोग की परावधि तो यह है कि एक क्षण के लिये भी दोनों वियुक्‍त नहीं होते और वियोग की सीमा यह है कि नित्‍य संयुक्‍त होने पर भी अपने को अनमिले मानते हैं। भ्‍ज्ञजनदास जी कहते हैं - ‘युगल किशोर के अंग-अंग मिले हुए हैं, फिर भी वे अपने को अलमिले मानकर अकुलाते रहते हैं। जहां का संयोग ही विरह रूप है उस रस का वर्णन नहीं किया जा सकता।

मिले अनमिले रह‍त विवि अंग अंग अकुलांइ।
प्रेमहि विरह सरूप जहां यह रस कह्यौ न जाइ।।

ध्रुवदास जी कहते हैं, जहां देखना ही विरह के समान है, वहां के प्रेम का वर्णन कोई क्‍या करे ! प्रेमी का वर्णन कोई क्‍या करे ! प्रेमी कभी बिछुड़ता नहीं है और न वह कभी मिला ही रहता है। प्रेम की यह अद्भुत एकरस स्थिति है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता’।

देखिवौ जहां विरह सम होई, तहां कौ प्रेम कहा कहि कोई।

प्रेमी बिछुरत नाहिं कहुँ मिल्‍यौ न सो पुनि आहि।
कोन एकरस प्रेम कौ कहि न सकत ध्रुव ताहि।।

मोहन जी प्रेम की इस एकत्र संयोग-वियोगमयी स्थिति को स्‍पष्‍ट करते हुए कहते हैं-‘प्रियतम की खोज में मेरा मन जब अत्‍यन्‍त अधीर होने लगा और किसी प्रकार उसका पता लगता ही न था, तब अनुभावियों ने मुझे बताया कि इस प्रेमदेश में अपनी चाह की छाया के अतिरिक्‍त अन्‍य कोई रहता ही नहीं है जिससे तुम कुछ जान सको। मैंने यह सुनकर, अपनी चाहों से पूछा कि तुम हो बताओ कि प्रियतम का स्‍वरूप क्‍या है? उन्‍होंने मुस्‍करा कर जवाब दिया कि नित्‍य-मिलन में अनमिलना ही उसका स्‍वरूप है।‘
क्रमशः ...

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