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मोरकुटी युगलरस लीला-28

जय जय श्यामाश्याम  !!
दिव्य मोरकुटी धराधाम पर दिव्य रसक्रीड़ा अपनी चरम सीमा पर है।सखी नृत्यांगना की अनुपम छवि दिव्यता से परिपूर्ण नृत्य कला का प्रदर्शन श्यामा जु के हृदय से बह कर सखी के अंतर्मन में सींचित हो गया है।

        रसक्रीड़ा में महाभावा श्यामा जु पल प्रतिपल गहन धमनियों का संचालन करतीं हैं जिससे उनके मन में उठ रही प्रियतम प्रति प्रेम भावरस लहरियाँ तब प्रचंड रूप धारण कर लेती हैं जब प्रियतम बांसुरी की मधुर तान में प्रिया जु को अपनी रस तृषा का पान कराने लगते हैं।तब श्यामा जु भी विभिन्न देहस्वरूप सखियों के माध्यम से उस अभिन्न रसप्रवाह को बहा देतीं हैं जो केवल एक ही हृदय में उद्गम तो हो सकता है पर उस रसप्रवाह की अनुभूति के लिए कायव्यूहरूप देहधारी सखियों का प्रेम द्वार खुलना आवश्यक है।

           रसप्रवाह की तीव्रता वंशी ध्वनि की तीव्रता जब एकरस होते हैं तो हृदय रूपी पुष्प में सिंचित दिव्य कलियाँ खिल उठतीं हैं और फिर रसपराग कण रूप श्वासों के माध्यम से बिखरते हुए सखियों में समा जाते हैं।इन रस पराग कणों की महक से श्यामसुंदर जु के हृदय में रस पिपासा का अंकुर फूटता है और भ्रमर रूप हुआ यह रसपिपासु हृदय पराग कणों से झरने वाले मकरंद रूपी मधु को अपनी रसतृषा बुझाने के लिए प्रेमाबद्ध हुआ मंत्रमुग्ध बेसुध खिंच जाता है।

      अद्भुत रसराज श्यामसुंदर जु व महाभावा श्यामा जु की अद्भुत रसक्रीड़ा की भूमि सखियों द्वारा उर्वरक होती है जिसमें श्यामा जु रसरूप होकर प्रेम सिंचन करतीं हैं।सखियाँ रूप देह आकार में विभिन्न हैं तो पर उनके आचार विचार भाव महाभाव संयोग वियोग इत्यादि रस सब श्यामा जु ही पोषित करतीं हैं और रासक्रीड़ा का शुभारंभ होता है।

       सखियों के हृदय में तत्सुख भाव की प्रगाढ़ता इतनी तीव्र हो जाती है कि वे अपना देहाध्यास खो कर स्वयं श्यामा जु ही की प्रतिछाया बन जातीं हैं और वंशी ध्वनि के तीव्र नाद से गहनतम परिस्थिति में वे श्यामसुंदर जु के लिए श्यामा जु होकर ही सर्वसमर्पण कर देतीं हैं।

     एक ही भाव पुकार सखियों के हृदय से एक ही समय पर उत्पन्न होती है-

"यहाँ-वहाँ कुछ कहीँ न मेरा,मेरे केवल तुम ही। मन-इन्द्रिय,शरीर,धन,जीवन मेरे केवल तुम ही।।
राग अनन्य,शुद्ध ममतास्पद मेरे केवल तुम ही।
भोग-मोक्ष,वैराग्य-भाग्य सब मेरे केवल तुम ही।।
तुम्हें छोड़कर कुछ भी मेरा कहीं न कोई,प्यारे !   अर्पण करूँ जिसे मैं तुमको,ऐसा क्या है,प्यारे !
खेल रहे तुम स्वयं आपमें खेल अनोखा,प्यारे !
रहो खेलते खुल इस निज निर्जन निकुँज में,प्यारे !"

         अनवरत रसक्रीड़ाएँ एक एक सखी के हृदय द्वार से बहने लगती है।सखी को देह व वस्त्र आभूषण की सुधि होना तो क्या उन्हें अपने आस्तित्व का ज्ञान भी नहीं।कहाँ कदम पड़ रहे कहाँ क्या कैसे भाव जग रहे इस पर उनका नियंत्रण नहीं।श्यामा जु की पद थाप व श्यामसुंदर जु की वंशी ध्वनि सखियों के नूपुर पायल चूड़ियों कर्णफूलों करधनी गलहार बेसर व माँगटिक्कों के घुंघरूओं की मधुर संगीतमय ध्वनियों की किसी संगीतज्ञ की तरह संचालिका बनीं हैं।नृत्य की गहन मुद्राएँ भी सखी सहज रूप से निभा जाती है क्यों कि उसमें श्यामा जु स्वयं कलारूप समाई हुईं हैं।श्यामसुंदर जु की वंशी के माध्यम से कही अनकही एक एक बात सखी श्यामाश्याम जु के परस्पर भाव में डूब कर समझती है और रासक्रीड़ा को आगे बढ़ाने का हेतु बनती है।

       बलिहार  !!सुंदर सुंदरतम महाभावा श्रीप्रिया जु और अति सुंदर सुमधुर रसराज श्यामसुंदर जु का रास में सखियों संग दिव्य रसरास का मंद मंद आगे बढ़ता लीला दर्शन।अद्भुत रसिक वर के हृदय की अंतरंग भाव लहरियाँ जो बाहर से अनछुई अनूठी पर भीतर से गहन गहनतम धरा के धरातल से उठ कर अप्राकृत रस में नहाई डूबी हुई कुछ छींटें उड़ाती रस विस्तार हेतु।पर इस सबका एकमात्र हितु श्री वृंदावन धाम और श्रीयुगल का अप्राकृत तत्सुखमय प्रेम।प्रकृति को भी जीवंत करने वाला यह गहन रस जो सींचन करता है दिव्य रज अणुओं से भी अंकुरित होने वाले दिव्य पुष्पों का जिनकी महक से खिंच जाते हैं मधुरस पिपासु स्वयं जगताधार श्यामसुंदर।
क्रमशः

जय जय युगल  !!
जय जय युगलरस विपिन वृंदावन  !!

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