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मेरे तो गिरधर गोपाल
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वेदान्त में ऐसी मान्यता है कि अभेद के बाद कुछ भी बाकी नहीं रहता। अगर अभेद के बाद ईश्वर से अभिन्नता मानें तो वेदान्त के अद्वैत सिद्धान्त में कमी आती है। अपने सिद्धान्त में कमी न आ जाय, इसलिये वेदान्तियों ने ईश्वर को कल्पित बता दिया; क्योंकि कल्पित बताने के सिवाय और कोई उपाय नहीं। परन्तु ईश्वर किसकी कल्पना है- इसका उत्तर उनके पास नहीं है। वे द्वैत से डरते हैं कि कहीं अपने में द्वैत न आ जाय। वास्तव में सत्ता एक ही (अद्वैत) हैं; परन्तु अपने राग के कारण दूसरी सत्ता (द्वैत) दीखती है। दूसरी सत्ता का तात्पर्य संसार से है, ईश्वर से नहीं; क्योंकि संसार ‘पर’ है और ईश्वर ‘स्व’ (स्वकीय) है। दूसरी सत्ता का निषेध करने के लिये वेदान्त ने ईश्वर को भी कल्पित मान लिया! राग तो अपना है, पर मान लिया ईश्वर को कल्पित! अपना राग मिटाये बिना दूसरी सत्ता कैसे मिटेगी? इसलिये ईश्वर को कल्पित न मानकर अपना राग मिटाना चाहिये। ईश्वर कल्पित नहीं है, प्रत्युत अलौकिक है।

जीव सब एक हो जायँ तो ‘ब्रह्म’ होता है। जो ऐश्वर्य से युक्त है और सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति, प्रलय आदि जानता है, वह ‘भगवान्’ है। ये बातें जीव में नहीं होतीं। इसलिये सब जीव एक होने पर उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय नहीं होता- ‘जगद्व्यापारवर्जम्’।कारण कि जीव ब्रह्म के साथ एक हो सकता है, भगवान् के साथ नहीं। भगवान् के साथ उसका अभेद नहीं हो सकता, पर अभिन्नता हो सकती है। श्रीएकनाथ जी महाराज ने भागवत, एकादश स्कन्ध की टीका में इसी अभिन्नता को अभेद भक्ति कहा है।

मानव शरीर की जो महिमा है, वह आकृति को लेकर नहीं है, प्रत्युत विवेक को लेकर ही है। सत् और असत् जड़ और चेतन, सार और असार, कर्तव्य और अकर्तव्य- ऐसी जो दो-दो चीजें हैं, उनको अलग-अलग समझने का नाम ‘विवेक’ है। यह विवेक परमात्मा का दिया हुआ और अनादि है। इसलिये यह पैदा नहीं होता, प्रत्युत जाग्रत होता है। सत्संग से यह विवेक जाग्रत और पुष्ट होता है। सत्संग में भी खूब ध्यान देने से, गहरा विचार करने से ही विवेक जाग्रत् होता है, साधारण ध्यान देने से नहीं होता। आजकल प्रायः यह देखने में आता है कि सत्संग करने वाले, सत्संग कराने वाले, व्याख्यान देने वाले भी गहरी पारमार्थिक बातों को समझते नहीं। वे जड़-चेतन के विभाग को ठीक तरह से जानते ही नहीं। थोड़ी जानकारी होने पर व्याख्यान देने लग जाते हैं। जिनका विवेक जाग्रत् हो जाता है, उनमें बहुत विलक्षणता, अलौकिकता आ जाती है।

साधक को सबसे पहले शरीर (जड़) और शरीरी (चेतन)-का विभाग समझना चाहिये। शरीर और अशरीरी से आरम्भ करके संसार और परमात्मा तक विवेक होना चाहिये। शरीर और शरीरी का विवेक मनुष्य के सिवाय और जगह नहीं है। देवताओं में विवेक तो है, पर भोगों में लिप्त होने के कारण वह विवेक काम नहीं करता।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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