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मेरे तो गिरधर गोपाल
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नारद जी ने कहा कि बन्दर आपकी सहायता करेंगे- ‘करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी’ तो यह शाप हुआ कि वरदान? यह तो वरदान हुआ! इसलिये कहा है- ‘साधु ते होइ न कारज हानी’। शाप के कारण भगवान का अवतार हुआ और विविध लीलाएँ हुईं, जिनको गा-गाकर लोगों का कल्याण हो रहा है। तात्पर्य है कि नारद जी का शाप लोगों के कल्याण का उपाय हो गया! ऐसे ही भगवान का भी क्रोध वरदान के समान कल्याणकारी होता है- ‘क्रोधोअपि देवस्य वरेण तुल्यः’। भगवान् और उनके भक्त- दोनों ही बिना हेतु सबका हित करने वाले हैं-

हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ।

इन दोनों के साथ किसी भी तरह से सम्बन्ध हो जाय तो लाभ-ही-लाभ होता है। ये सब पर कृपा करते हैं। लोग कहते हैं कि भगवान ने दुःख भेद दिया! पर भगवान् के खजाने में दुःख है ही नहीं, फिर वे कहाँ से दुःख लाकर आपको देंगे? भगवान् और सन्त कृपा-ही-कृपा करते हैं, इसलिये इनका संग छोड़ना नहीं चाहिये।

मनुष्य जन्म में किये गये पाप चौरासी लाख योनियाँ भोगने पर भी सर्वथा नष्ट नहीं होते, बाकी रह जाते हैं। फिर भी भगवान् कृपा करके मनुष्य शरीर दे देते हैं, अपने उद्धार का मौका दे देते हैं। परन्तु मनुष्य मिले हुए को अपना मान लेता है। मिलने और बिछुड़ने वाली वस्तु को अपना मानने से वह वस्तु अशुद्ध हो जाती है। इसलिये शुद्ध करने से अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता, प्रत्युत अपना न मानने से शुद्ध होता है। अतः सब कुछ भगवान् के अर्पण कर दो। मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदि को भगवान् का मान लो तो सब शुद्ध निर्मल हो जायँगे। जहाँ अपना माना, वहीं अशुद्ध हो जायँगे और अभिमान आ जायगा।

एक समय बाँकुड़े जिले में अकाल पड़ा। सेठ जी श्रीजयदयाल जी गोयन्दका ने नियम रख दिया कि कोई भी आदमी आकर दो घन्टे कीर्तन करे और चावल ले जाय। कारण कि अगर उनको पैसा देंगे तो उससे वे अशुद्ध वस्तु खरीदेंगे। इसलिये पैसा न देकर चावल देते थे। इस तरह सौ-सवा सौ जगह ऐसे केन्द्र बना दिये, जहाँ लोग जाकर कीर्तन करते थे और चावल ले जाते थे। एक दिन सेठ जी वहाँ गये। रात्रि के समय बंगाली लोग इकट्ठे हुए। उन्होंने सेठ जी से कहा कि महाराज! आपने हमारे जिले को जिला दिया, नहीं तो बिना अन्न के लोग भूखों मर जाते! आपने बड़ी कृपा की। सेठ जी ने बदले में बहुत बढ़िया बात कही कि आप लोग झूठी प्रशंसा करते हो। हमने मारवाड़ से यहाँ आकर जितने रूपये कमाये, वे सब-के-सब लग जायँ, तब तक तो आपकी ही चीज आपको दी है, हमारी चीज दी ही नहीं। हम मारवाड़ से लाकर यहाँ दें, तब आप ऐसा कह सकते हो। हमने तो यहाँ से कमाया हुआ धन भी पूरा दिया नहीं है। सेठ जी ने केवल सभ्यता की दृष्टि से यह बात नहीं कही, प्रत्युत हृदय से यह बात कही। सेठ जी के छोटे भाई हरिकृष्णदास जी से पूछा गया कि आपने सबको चावल देने का इतना काम शुरू किया है, इसमें कहाँ तक पैसा लगाने का विचार किया है? उन्होंने बड़ी विचित्र बात कही कि जब तक माँगने वालों की जो दशा है- वैसी दशा हमारी न हो जाय, तब तक! कोई धनी आदमी क्या ऐसा कह सकता है? उनके मन में यह अभिमान ही नहीं है कि हम इतना उपकार करते हैं।

हम लोग विचार ही नहीं करते कि भगवान की हम पर कितनी विलक्षण कृपा है! हम क्या थे, क्या हो गये! भगवान् ने कृपा करके क्या बना दिया-इस तरफ देखते ही नहीं, सोचते ही नहीं, समझते ही नहीं। अपने-अपने जीवन को देखें तो मालूम होता है कि हम कैसे थे और भगवान् ने कैसा बना दिया! गोस्वामी जी ने कहा है-

नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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