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मेरे तो गिरधर गोपाल
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भगवान कहते हैं- ‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिंना’ ‘यह सब संसार मेरे अव्यक्त (निराकार)-स्वरूप से व्याप्त है।’ जिसकी आकृति होती है, उसको ‘मूर्ति’ कहते हैं और जिसकी कोई भी आकृति नहीं होती, उसको ‘अव्यक्तमूर्ति’ कहते हैं। जैसे भगवान् अव्यक्तमूर्ति हैं, ऐसे ही साधक भी अव्यक्तमूर्ति होता है- ‘अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते’

साधक शरीर नहीं होता- ऐसी बात ग्रन्थों में आती नहीं, पर वास्तव में बात ऐसी ही है। साधक भाव शरीर होता है। वह योगी होता है, भोगी नहीं होता। भोग और योग का आपस में विरोध है। भोगी योगी नहीं होता और योगी भोगी नहीं होता। साधक को भी काम भोगबुद्धि अथवा सुखबुद्धि से नहीं करता, प्रत्युत योगबुद्धि से करता है। समता का नाम ‘योग’ है- समत्वं योग उच्यते’ समता भाव है। अतः साधक भाव शरीर होता है।

स्थूल शरीर परिक्षण बदलता है। ऐसा कोई क्षण नहीं है, जिस क्षण में शरीर का परिवर्तन न होता हो। परमात्मा की दो प्रकृतियाँ हैं। शरीर अपरा प्रकृति है और जीव परा प्रकृति है। परा प्रकृति अव्यक्त है और अपरा प्रकृति व्यक्त है। सम्पूर्ण प्राणी पहले अव्यक्त हैं, बीच में व्यक्त हैं और अन्त में अव्यक्त हैं।स्वप्न आता है तो पहले जाग्रत है, बीच में स्वप्न है और अन्त में जाग्रत है। जैसे मध्य में स्वप्न है, ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी मध्य में व्यक्त हैं।

यह सिद्धान्त है कि जो आदि और अन्त में नहीं होता, वह वर्तमान में भी नहीं होता- ‘आदावन्ते च यत्रास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा’।प्राणी आदि में और अन्त में अव्यक्त हैं; अतः बीच में व्यक्त दीखते हुए भी वे वास्तव में अव्यक्त ही हैं। व्यक्त में दो व्यक्ति भी एक (समान) नहीं होते, पर अव्यक्त में सब-के-सब एक हो जाते हैं। अतः अव्यक्त में सबको परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। जो सबको प्राप्त हो सकता है, वही परमात्मा होता है। जो किसी को प्राप्त होता है, किसी को प्राप्त नहीं होता, वह परमात्मा नहीं होता, प्रत्युत संसार होता है। इसलिये परमात्मा की प्राप्ति अव्यक्त को होती है और अव्यक्त में होती है।

अव्यक्त ही साधक होता है। व्यक्त साधक नहीं होता। व्यक्त तो एक क्षण भी नहीं ठहरता। ‘प्रतिक्षणपरिणामिनो हि भावा ऋते चितिशक्ते’ ‘चितिशक्ति’ (चेतन शक्ति)-को छोड़कर सभी भाव प्रतिक्षण परिणामी हैं अर्थात एक क्षण भी स्थिर रहने वाले नहीं हैं। विचार करें, जब हमने माँ से जन्म लिया था, उस समय हमारे शरीर का क्या रूप था और आज क्या रूप है? विचार करने पर यह मानना ही पड़ेगा कि शरीर-संसार प्रतिक्षण बदलते हैं। बदलने के पुंज का नाम ही संसार है। जो बदलता है, वह साधक कैसे हो सकता है? साधक वही होता है, जो बदलता नहीं। साधक को सिद्धि होती है तो शरीर सिद्ध नहीं होता। सिद्ध तो अशरीरी होता है। इसलिये साधक को सबसे पहले यह बात मान लेनी चाहिये कि शरीर मेरा स्वरूप नहीं है, चाहे समझ में आये या न आये।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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