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मेरे तो गिरधर गोपाल
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हमारा स्वरूप स्वाभाविक मुक्त है। प्रकृति में निरन्तर क्रिया होती है- सर्गावस्था में भी और प्रलयावस्था में भी। पर स्वरूप में कभी क्रिया होती ही नहीं। वह है ज्यों ही रहता है। अनन्त-अनन्त-अनन्त कल बीत जायँ तो भी वह है ज्यों-का-त्यों रहेगा। वह अनेक शरीर धारण करने पर भी उनसे अलग रहता है। एक दिन में कई क्रियाएँ करता है, पर स्वयं अलग रहता है। अलग रहने पर से पहली क्रिया को छोड़कर दूसरी को क्रिया पकड़ता है, दूसरी को छोड़कर तीसरी पकड़ता है, तीसरी को छोड़कर चौथी पकड़ता है। अगर स्वरूप में भी क्रियाशीलता होती तो वह सदा एक ही क्रिया में और एक ही शरीर में रहता। वह पहली क्रिया को छोड़कर दूसरी को कैसे पकड़ता? एक शरीर को छोड़कर चौरासी लाख योनियों के दूसरे शरीरों में कैसे जाता? सबसे अलग होने पर भी यह जड़ शरीर, वस्तु, व्यक्ति और क्रिया के साथ सम्बन्ध जोड़कर बँध जाता है। बँध जाने के बाद फिर छूटना कठिन हो जाता है-

‘जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई।

वास्तव में यह बँधा हुआ है ही नहीं। इसलिये मुक्ति स्वाभाविक है- यह बात हरेक को मान लेनी चाहिये। बन्धन अस्वाभाविक है, कृतिसाध्य है। मुक्ति कृतिसाध्य नहीं है। गीता में आया है-

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वाः प्रकृतिजैर्गुणैः।

कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृति के परवश हुए सब प्राणियों से प्रकृतिजन्य गुण कर्म करवा लेते हैं।’

यह प्रकृतिस्थ पुरुष का वर्णन है। वास्तव में पुरुष किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कोई कर्म नहीं करता, पर प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ने पर वह किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता। प्रकृति की क्रिया कभी मिटती ही नहीं और पुरुष (जीवात्मा)-में क्रिया लागू होती ही नहीं। यह स्वतः-स्वाभाविक असंग, निर्लिप्त रहता है। परन्तु प्रकृति से सम्बन्ध मानकर इसने मुक्ति को कृतिसाध्य, उद्योगसाध्य मान लिया है।

हम कोई कर्म करें, तभी शरीर काम आता है। कोई भी कर्म न करें तो शरीर का क्या उपयोग है? शरीर से परिवार की, समाज की अथवा संसार की सेवा कर सकते हैं। अपने लिये शरीर है ही नहीं। स्थूल शरीर से कोई काम न करें तो स्थूल शरीर निकम्मा है। कोई चिन्तन ना करें तो सूक्ष्मशरीर निकम्मा है। स्थिरता में अथवा समाधि न रहें तो कारणशरीर निकम्मा है।तात्पर्य है कि ये सब क्रियाएँ स्वरूप में नहीं होतीं, पर मनुष्य इनको अपने में मान लेता है। यह मान्यता ही बन्धन है। अपने को कर्ता मानने से यह बँध जाता है- ‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ और अपने को कर्ता न मानने से यह मुक्त हो जाता है- ‘नैव किंञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’।जैसे मनुष्य एक लड़की के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तो उसका पूरे ससुराल (सास-ससुर, साला-साली आदि)- के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। ऐसे ही एक शरीर के साथ सम्बन्ध जोड़ने से शरीर से होने वाली सम्पूर्ण क्रियाएँ हो जाती हैं। शरीर से स्वाभाविक अलगाव का अनुभव हो जाय तो फिर जन्म-मरण नहीं होता।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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