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मेरे तो गिरधर गोपाल
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साधक को इस बात का खयाल रखना चाहिये कि अपने में जो कुछ विशेषता आयी है, वह खुद कि नहीं है, प्रत्युत भगवान् से आयी है। इसलिये उस विशेषता को भगवान् की ही समझे, अपनी बिलकुल न समझे। अपने में जो कुछ विशेषता दीखती है, वह प्रभु की दी हुई है- ऐसा दृढ़तापूर्व मानने से ही अभिमान दूर हो सकता है।

मैं जैसा कीर्तन करता हूँ, वैसा दूसरा नहीं कर सकता; दूसरे इतने हैं, पर मेरे जैसा करने वाला कोई नहीं है- इस प्रकार जहाँ दूसरे को अपने सामने रखा कि अभिमान आया! साधक को ऐसा मानना चाहिये कि मैं करने वाला नहीं हूँ, प्रत्युत यह तो भगवान् की कृपा से हो रहा है। जो विशेषता आयी है, वह मेरी व्यक्तिगत नहीं है। अगर व्यक्तिगत होती तो सदा रहती, उस पर मेरा अधिकार चलता। ऐसा मानने से ही अभिमान से छुटकारा हो सकता है।

भगवान् की कृपा है कि वे किसी का अभिमान रहने नहीं देते। इसलिये अभिमान आते ही उसमें टक्कर लगती है। भगवान् विशेष कृपा करके चेताते हैं कि तू कुछ भी अपना मत मान, तेरा सब काम मैं करूँगा। भगवान् अभिमान को तोड़ देते हैं, उसको ठहरने नहीं देते- यह उनकी बड़ी अलौकिक, विचित्र कृपा है।

जिसमें अभिमान रह जाता है, वह राक्षस हो जाता है। हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, रावण, दन्तवक्त्र, शिशुपाल आदि सब में अभिमान था। अभिमान के कारण वे किसी को नहीं गिनते। भगवान् को भी नहीं गिनते! उनके अभिमान को दूर करने के लिये भगवान् अवतार लेते हैं और कृपा करके उनका नाश करते हैं। वास्तव में भगवान् मनुष्य को नहीं मारते हैं, प्रत्युत उसके अभिमान को मारते हैं। जैसे फोड़ा हो जाता है तो वैद्य लोग पहले उसको पकाते हैं, फिर चीरा लगाते हैं। ऐसे ही भगवान् पहले अभिमान को बढ़ाते हैं, फिर उसका नाश करते हैं। इस विषय में वे किसी का कायदा नहीं रखते।

भगवान् का स्वभाव बड़ा विचित्र है। दूसरे मनुष्य तो हमारा कुछ भी उपकार करते हैं तो एहसान जनाते हैं कि तेरे को मैंने ऊँचा बनाया! पर भगवान् सब कुछ देकर भी कहते हैं- ‘मैं तो हूँ भगतन को दास, भगत मेरे मुकुटमणि’! भगवान यह नहीं कहते कि मैंने तेरे को ऊँचा बनाया है, प्रत्युत खुद उसके दास बन जाते हैं। इतना ही नहीं, भगवान उसको पता ही नहीं चलने देते कि मैंने तेरे को दिया है। मनुष्य के पास शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जो कुछ है, वह सब भगवान् का ही दिया हुआ है। वे इतना छिपकर देते हैं कि मनुष्य इन वस्तुओं को अपना ही मान लेता है कि मेरा ही मन है, मेरी ही बुद्धि है, मेरी ही योग्यता है, मेरी ही सामर्थ्य है, मेरी ही समझ है। यह तो देने वाले की विलक्षणता है कि मिली हुई चीज अपनी ही मालूम देती है। अगर आँखें अपनी हैं तो फिर चश्मा क्यों लगाते हो? आँखों में कमजोरी आ गयी तो उसको ठीक कर लो। शरीर अपना है तो उसको बीमार मत होने दो, मरने मत दो।

देने वाले कि इतनी विचित्रता है कि वे यह जनाते ही नहीं कि मेरा दिया हुआ है। इसलिये मनुष्य मान लेता है कि मैं समझदार हूँ, मैं वक्ता हूँ, मैं पण्डित हूँ, मैं लेखक हूँ आदि। वह अभिमान कर लेता है कि मैं इतना जप करता हूँ, इतना भजन करता हूँ, इतना ध्यान करता हूँ, इतना पाठ करता हूँ आदि। विचार करना चाहिये कि यह किस शक्ति से कर रहा हूँ? यह शक्ति कहाँ से आयी है? अर्जुन वही थे, गाण्डीव धनुष और बाण भी वही थे, पर डाकू लोग गोपियों को ले गये, अर्जुन कुछ नहीं कर सके- ‘काबाँ लूटी गोपिका, वे अर्जुन वे बाण’। अर्जुन ने महाभारत-युद्ध में विजय कर ली तो यह उनका बल नहीं था, प्रत्युत जो उनके सारथि बने थे, उन भगवान श्रीकृष्ण का बल था। गीता में भगवान् ने कहा भी है- ‘मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्’ ‘ये सभी मेरे द्वारा पहले से मारे हुए हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम निमित्तमात्र बन जाओ।’
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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