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मेरे तो गिरधर गोपाल
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त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि।

राजन! अब तुम यह पशुबुद्धि छोड़ दो कि मैं मरूँगा।’
अगर स्वयं मर जाय तो दूसरी योनि में कौन जायगा? स्वर्ग-नरक में कौन जायगा? चौरासी लाख योनियाँ कौन भोगेगा? परन्तु स्वयं कभी मरता नहीं; क्योंकि वह परमात्मा अंश है।

राम मरे तो मैं मरूँ, नहिं तो मरे बलाय।
अविनाशी का बालका, मरे न मारा जाय।

जब राम जी नहीं मरते तो फिर हम अकेले क्यों मरें? हम राम जी के अंश हैं। हमारा विनाश कभी होता ही नहीं। हम कैसे हैं-यह तो हम नहीं जानते, पर हम अनेक योनियों में गये, कभी जलचर बने, कभी नभचर बने, कभी थलचर बने, कभी अण्डज, जरायुज, स्वेदज अथवा उद्भिज्ज बने तो शरीर बदल गये, पर हम नहीं बदले। वे शरीर तो नहीं रहे, पर हम रहे। अतः हमारा स्वरूप हरदम रहने वाली सत्ता है, जिसका कभी विनाश नहीं होता। यह सत्ता परमात्मा का अंश है।

समुद्र से जल उठता है तो बादल बनता है। बादल बनकर वह बरसता है। जानकार लोग बता देते हैं कि अमुक जगह से बादल उठा है तो वह अमुक जगह बरसेगा। वर्षा का जल नाले में जाता है, नाला नदी में जाता है। नदी समुद्र में जाती है। तात्पर्य है कि समुद्र से उठने के बाद जल कहीं भी ठहरता नहीं, चलता ही रहता है। अन्त में जब वह समुद्र में मिल जाता है, तब उसको शान्ति मिलती है। ऐसे ही परमात्मा का अंश जब तक परमात्मा को प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक इसकी मुसाफिरी चलती रहती है। परमात्मा से मिलने पर ही इसको शान्ति मिलती है। जैसे, शरीर पृथ्वी का अंश है। जब तक यह पृथ्वी में नहीं मिल जाता, तब तक यह चलता-फिरता रहता है। अन्त में मरकर यह मिट्टी में मिल जाता है। यह पृथ्वी में ही पैदा होता है, पृथ्वी में ही रहता है और पृथ्वी में ही लीन हो जाता है। यह पृथ्वी को छोड़कर कहीं नहीं जा सकता। इसी तरह इस जीव को जब तक परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती, तब तक इसकी यात्रा चलती ही रहेगी। यह जन्मता-मरता ही रहेगा, दुःख पाता ही रहेगा- ‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।’ इसको कहीं शान्ति नहीं मिलेगी। इसलिये मनुष्य को अपनी जो असली जिज्ञासा और लालसा है, उसको जाग्रत करना चाहिये।
मनुष्य शरीर में आकर भोग और संग्रह में लग गये तो लाभ कुछ भी नहीं हुआ, वहीं-के-वहीं रहे। कोल्हू का बैल उम्र भर चलता है, पर वहीं-का-वहीं रहता है। ऐसे ही बार-बार जन्म लेते रहे और मरते रहे तो वहीं-के-वहीं रहे, कुछ फायदा नहीं हुआ। फायदा तभी होगा, जब हमारा भटकना मिट जायगा। इसलिये विचार करना चाहिये कि हम किसके अंश हैं? हम जिसके अंश है, उसको प्राप्त करने पर ही हमारा भटकना मिटेगा।

मनुष्य शरीर मिल गया तो परमात्मा प्राप्ति का, अपना कल्याण करने का अधिकार मिल गया। कल्याण की प्राप्ति में केवल जिज्ञासा या लालसा मुख्य है। अपनी जिज्ञासा अथवा लालसा होगी तो कल्याण की सब सामग्री मिल जायगी। सत्संग भी मिल जायगा, गुरु भी मिल जायगा, अच्छे सन्त-महात्मा भी मिल जायँगे, अच्छे ग्रन्थ भी मिल जायँगे। कहाँ मिलेंगे, कैसे मिलेंगे-इसका पता नहीं, पर सच्ची जिज्ञासा या लालसा होगी तो जरूर मिलेंगे। आप कर्मयोग, ज्ञानयोग अथवा भक्तियोग, जिस योग मार्ग पर चलना चाहते हैं, उस मार्ग की सामग्री देने के लिये भगवान् तैयार हैं। परन्तु आप चलना ही नहीं चाहें तो भगवान् क्या करें? आपके ऊपर कोई टैक्स नहीं, कोई जिम्मेवारी नहीं, केवल आपकी लालसा होनी चाहिये।

कल्याण की सच्ची लालसा वाला साधक बिना कल्याण हुए कहीं टिक नहीं सकेगा। गुरु मिल गया, पर कल्याण नहीं हुआ तो वहाँ नहीं टिकेगा। साधु बनेगा तो वहाँ नहीं टिकेगा। गृहस्थ बनेगा तो वहाँ नहीं टिकेगा। किसी सम्प्रदाय में गया तो वहाँ नहीं टिकेगा। भूखे आदमी को जब तक अन्न नहीं मिलेगा, तब तक वह कैसे टिकेगा? जिसमें कल्याण की अभिलाषा है, वह कहीं भी ठहरेगा नहीं। ठहरना उसके हाथ की बात नहीं है। जहाँ उसकी लालसा पूरी होगी, वहीं ठहरेगा।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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