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मेरे तो गिरधर गोपाल
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आपने अबतक कई शरीर धारण किये, पर सब शरीर छूट गये, आप वही रहे। शरीर तो यहीं छूट जायगा, पर स्वर्ग या नरक में आप जाओगे, मुक्ति आपकी होगी, भगवान् के धाम में आप पहुँचोगे। तात्पर्य है कि आपकी सत्ता (स्वरूप) शरीर के अधीन नहीं है। अतः शरीर के रहने अथवा न रहने से आपकी सत्ता में कोई फर्क नहीं पड़ता। अनन्त ब्रह्माण्ड हैं, अनन्त सृष्टियाँ हैं, पर उनका आप पर सत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता। केश-जितनी चीज भी आप तक नहीं पहुँचती। ये सब मन-बुद्धि तक ही पहुँचती हैं। प्रकृति का कार्य मन-बुद्धि से आगे जा सकता ही नहीं। इसलिये अनन्त ब्रह्माण्डो में केश-जितनी चीज भी आपकी नहीं है।

आपके परमात्मा हैं और आप परमात्मा के हो। साधन करके आप ही परमात्मा को प्राप्त होंगे, शरीर प्राप्त नहीं होगा। इसलिये साधन करते हुए ऐसा मानना चाहिये कि हम निराकार हैं, साकार (शरीर) नहीं हैं। आप मकान में बैठते हैं तो आप मकान नहीं हो जाते। मकान अलग है, आप अलग हैं। मकान को छोड़कर आप चल दोगे। फर्क आपसे पड़ेगा, मकान में नहीं। ऐसे ही शरीर यहीं रहेगा, आप चल दोगे। पाप-पुण्य का फल आप भोगोगे, शरीर नहीं भोगेगा। मुक्ति आपकी होगी, शरीर की नहीं होगी। शरीर तो मिट्टी हो जायगा, पर आप मिट्टी नहीं होंगे। आपका स्वरूप गीता ने इस प्रकार बतया है-

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोअयं सनातनः ।।
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ।।

यह शरीरी काटा नहीं जा सकता, यह जलाया नहीं जा सकता, यह गीला नहीं किया जा सकता और यह सुखाया भी नहीं जा सकता। कारण कि यह नित्य रहने वाला, सब में परिपूर्ण, अचल, स्थिर स्वभाव वाला और अनादि है।’

‘यह देही प्रत्यक्ष नहीं दीखता, यह चिन्तन का का विषय नहीं है और यह निर्विकार कहा जाता है। अतः इस देही को ऐसा जानकर शोक नहीं करना चाहिये।’

प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि मैं कभी मरूँ नहीं, मैं सब कुछ जान जाऊँ और मैं सदा सुखी रहूँ। ये तीनों इच्छाएँ मूल में सत्, चित् और आनन्द की इच्छा है। परन्तु वह इस वास्तविक इच्छा को शरीर की सहायता से पूरी करना चाहता है; क्योंकि स्वयं परमात्मा का अंश होते हुए भी वह शरीर- इन्द्रियाँ- मन-बुद्धि को अपना मान लेता है।परन्तु वास्तव में मनुष्य अपनी वास्तविक इच्छा को शरीर अथवा संसार की सहायता से पूरी कर ही नहीं सकता। कारण कि शरीर नाशवान् है, इसलिये उसके द्वारा कोई मरने से नहीं बच सकता। शरीर जड़ है, इसलिये उसके द्वारा ज्ञान नहीं हो सकता। शरीर प्रतिक्षण बदलने वाला है, इसलिये उसके द्वारा कोई सुखी नहीं हो सकता। इसलिये मनुष्य में जो सत्-चित्-आनन्द की इच्छा है, उसकी पूर्ति शरीर से असंग (सम्बन्ध-रहित) होने पर ही हो सकती है। इस वास्तविक इच्छा की पूर्ति में शरीर लेशमात्र भी साधक अथवा बाधक नहीं है, प्रत्युत शरीर का सम्बन्ध ही इसमें बाधक है। इसलिये शरीर से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर साधक क्रिया और पदार्थ से असंग हो जाता है। क्रिया और पदार्थ- दोनों प्रकृति के कार्य हैं। क्रिया और पदार्थ से असंग होने पर साधक की वास्तविक इच्छा पूरी हो जाती है। वास्तविक इच्छा की पूर्ति होने पर साधक की सत्-चित्-आनन्द रूप स्वरूप में स्थिति हो जाती है। स्वरूप में स्थिति होने पर लौकिक साधना (कर्मयोग तथा ज्ञानयोग)- की सिद्धि हो जाती है।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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