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मेरे तो गिरधर गोपाल
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मन का सम्बन्ध प्रकृति के साथ है और आपका सम्बन्ध परमात्मा के साथ है। आपने मन के साथ अपना सम्बन्ध मान लिया तो अब दुःख पाना ही पड़ेगा। अब आप मन से, शरीर से जो काम करोगे, उसका पाप-पुण्य आपको लगेगा ही। कुत्ते के मन में कुछ भी आये, उससे आपको क्या मतलब? ऐसे ही इस मन में कुछ भी आये, उससे आपको क्या मतलब? आपका सम्बन्ध शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि के साथ नहीं है, प्रत्युत परमात्मा के साथ है- इस बात को समझाने के लिये ही गीता में भगवान कहते हैं- ‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ ‘इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है’। इस बात को समझ लो तो आपकी वृत्तियों में, आपके साधन में फर्क पड़ जायगा।

आप अपने को ‘मैं हूँ’- इस तरह जानते हैं। इसमें ‘मैं’ तो जड़ है और ‘हूँ’ चेतन है। ‘मैं’ के कारण से ‘हूँ’ है। अगर 'मैं' (अहम्) ना रहे तो 'हूँ' नही रहेगा, प्रत्युत केवल 'है’ (चिन्मय सत्ता मात्र) रह जायगा। इसी बात को गीता में भगवान् ने कहा है कि जब साधक निर्मम-निरहंकार हो जाता है, तब उसकी स्थिति ब्रह्म में हो जाती है- ‘एषा ब्राह्मी स्थितिः’।

अहंकार हमारा स्वरूप नहीं है। अहंकार अपरा प्रकृति है और हम परा प्रकृति हैं। हम अलग हैं, अहंकार अलग है। जैसे, जाग्रत् और स्वप्न में अहंकार जाग्रत् रहता है, पर सुषुप्ति में अहंकार जाग्रत् नहीं रहना, प्रत्युत अविद्या में लीन हो जाता है। सुषुप्ति में अहंकार न रहने पर भी हम रहते हैं। हमारा स्वरूप अशरीरी है। जैसे भगवान् अव्यक्त हैं, ऐसे ही उनका अंश होने से हम भी स्वरूप से अव्यक्त (निराकार) हैं। अव्यक्त मूर्ति का अंश भी अव्यक्त मूर्ति ही होगा। यह शरीर तो भोगायतन (भोगने का स्थान) है। जैसे हम रसोईघर में बैठकर भोजन करते हैं, ऐसे ही हम शरीर में रहकर कर्मफल भोगते हैं। इसलिये साधक को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये कि मैं अव्यक्त (निराकार)- रूप हूँ, मनुष्य रूप नहीं हूँ। साधन करने वाला शरीर नहीं होता। इसीलिये हम कहते हैं कि मैं बचपन में जो था, वही मैं आज हूँ।

बचपन से लेकर आज तक हमारे शरीर में इतना फर्क पड़ गया कि पहचान भी नहीं सकते, फिर भी हम वही हैं। बचपन में खेला करता था, बाद में पढ़ता था, वही मैं आज हूँ। शरीर वही नहीं है। शरीर तो एक क्षण भी नहीं रहता, निरन्तर बदलता रहता है। जो नहीं बदलता, वही साधक है। बदलने वाला साधक नहीं है।

साधक योगभ्रष्ट होता है तो वह दूसरे जन्म में श्रीमानों के घर जन्म लेता है अथवा योनियों के घर जन्म लेता है। शरीर तो मर गया, जला दिया गया, फिर श्रीमानों अथवा योगियों के घर कौन जन्म लेगा? वही जन्म लेगा, जो शरीर से अलग है। इसलिये आप इस बात को दृढ़ता से स्वीकार कर लें कि हम शरीर नहीं हैं, प्रत्युत शरीर को जानने वाले हैं। इस बात को स्वीकार किये बिना साधन बढ़िया नहीं होगा, सत्संग की बातें ठीक समझ में नहीं आयेंगी।

शरीर तो प्रतिक्षण बदलता है, पर आप महासर्ग और महाप्रलय होने पर भी नहीं बदलते, प्रत्युत ज्यों-के-त्यों एकरूप रहते हैं-

‘सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ।’गीता 14। 2
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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