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मेरे तो गिरधर गोपाल
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शरीर और शरीरी के विभाग को जानने वाले मनुष्य बहुत कम हैं। इसलिये सत्संग के द्वारा इस विभाग को जानने की खास जरूरत है। शरीर जड़ है और स्वयं (आत्मा) चेतन है। स्वयं परमात्मा का अंश है और शरीर प्रकृति का अंश है। चेतन अलग है और जड़ अलग है। मुक्ति चेतन की होगी, जड़ की नहीं; क्योंकि बन्धन चेतन ने स्वीकार किया है। जड़ तो हरदम बदल रहा है और नाश की तरफ जा रहा है। हमारी जितनी उम्र बीत गयी है, उतने दिन तो हम मर ही गये हैं। ‘मरना’ शब्द भले ही खराब लगे, पर बात सच्ची है। जन्म के समय जीने के जितने दिन बाकी थे, उतने दिन अब बाकी नहीं रहे। जितने दिन बीत गये, उतने दिन तो मर गये, अब कितने दिन बाकी हैं, इसका पता नहीं है। जीवन का जो समय चला गया, नष्ट हो गया, वह जड़-विभाग में हुआ है, चेतन-विभाग में नहीं। चेतन-विभाग में मृत्यु नहीं है। उसकी कोई उम्र नहीं है। वह अमर है। शरीर मरता है, आत्मा नहीं मरता। इस प्रकार आरम्भ से ही जड़-चेतन के विभाग को समझ लेना चाहिये। जो चेतन-विभाग है, वह परमात्मा का है और जो जड़-विभाग है, वह प्रकृति का है। गीता में आया है-

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि।

प्रकृति और पुरुष-दोनों अनादि तो हैं, पर दोनों में पुरुष (चेतन) अनादि तथा अनन्त है, और प्रकृति अनादि तथा सान्त है। कई विद्वान् प्रकृति को भी अनन्त मानते हैं, पर यह दार्शनिक मतभेद है। यहाँ यह समझ लेना चाहिये कि जो अपने को भी नहीं जानता और दूसरे को भी नहीं जानता, उसका नाम ‘जड़’ है। जो अपने को भी जानता है और दूसरे को भी जानता है, उसका नाम ‘चेतन’ है। जानने की शक्ति चेतनता है। यह शक्ति जड़ में नहीं है।

मन- बुद्धि चेतन में दीखते हैं, पर हैं ये जड़ ही। ये चेतन के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं। हम (स्वयं) शरीर- इन्द्रियाँ- मन-बुद्धि को जानने वाले हैं। इन्द्रियों के दो विभाग हैं- कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ। कर्मेन्द्रियाँ तो सर्वथा जड़ हैं और ज्ञानेन्द्रियों में चेतन का आभास है। उस आभास को लेकर ही श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना और घ्राण- ये पाँचों इन्द्रियाँ ‘ज्ञानेन्द्रियाँ’ कहलाती हैं। ज्ञानेन्द्रियों को लेकर जीवात्मा विषयों का सेवन करता है-

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते।

ज्ञानेन्द्रियों में और अन्तःकरण में जो ज्ञान दीखता है, वह उनका खुद का नहीं है, प्रत्युत चेतन के द्वारा आया हुआ है। खुद तो वे जड़ ही हैं। जैसे दर्पण को सूर्य के सामने कर दिया जाय तो सूर्य का प्रकाश दर्पण में आ जाता है। वह प्रकाश मूल में सूर्य का है, दर्पण का नहीं। ऐसे ही इन्द्रियों में और अन्तःकरण में चेतन से प्रकाश आता है। चेतन के प्रकाश से प्रकाशित होने पर भी इन्द्रियाँ और अन्तःकरण जड़ हैं। हम स्वयं चेतन हैं और परमात्मा के अंश हैं। गीता में भगवान् कहते हैं- ‘ममैवांशो जीवलोके’, जैसे शरीर माँ और बाप दोनों से बना हुआ है, ऐसे स्वयं प्रकृति और परमात्मा दोनों से बना हुआ नहीं है। यह केवल परमात्मा का ही अंश है। भगवान कहा है-

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भ दधाम्यहम्।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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