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मेरे तो गिरधर गोपाल
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इसलिये वास्तव में साधक अव्यक्त होकर ही भगवान् का भजन करते हैं। एक पांचभौतिक शरीर होता है और एक अव्यक्त भाव शरीर होता है। भजन-ध्यान वास्तव में भाव शरीर से ही होता है। भजन नाम प्रेम का है- ‘पन्नगारि सुनु प्रेम सम भजन न दूसर आन’।प्रेम भाव शरीर से ही होता है। अतः वास्तव में अव्यक्तमूर्ति ही भगवान् में प्रेम करता है, भगवान का भजन करता है, भगवान् में तल्लीन होता है। उसी को भगवान् मीठे लगते हैं, भगवान की बात अच्छी लगती है, भगवान् की लीला अच्छी लगती है, भगवान् का नाम अच्छा लगता है।

भगवान ने कहा है कि यह जीव अनादिकाल से मेरा ही अंश है- ‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’।यहाँ ‘मम एक अंशः’ कहने का तात्पर्य है कि जैसे शरीर में माता-पिता दोनों का अंश है, ऐसे जीव में प्रकृति का अंश नहीं है, प्रत्युत केवल मेरा ही अंश है। प्रकृति का अंश शरीर तो प्रकृति में ही स्थित रहता है, पर जीव परमात्मा का अंश होते हुए भी परमात्मा में स्थित नहीं रहता। वह अपने-आप को संसार में स्थित मानता है, भगवान् में स्थित नहीं मानता। वह प्रकृति में स्थित शरीर- इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि को अपना स्वरूप मान लेता है- ‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’। इसलिये ‘मैं शरीर से रहित हूँ- यह बात उसकी समझ में नहीं आती। मनुष्य की सबसे बड़ी कोई भूल है तो यही है कि वह प्रतिक्षण बदलने वाले शरीर को अपना स्थायी रूप मान लेता है।

भगवान् ने गीता के आरम्भ में शरीर और शरीरी (शरीर वाले)-का वर्णन किया है, जिसका तात्पर्य साधक मात्र को यह बताना है कि तुम शरीर नहीं हो। वास्तव में साधक न शरीर है और न शरीरी ही है। साधक का स्वरूप सत्ता मात्र है, पर समझाने की दृष्टि से भगवान ने स्वरूप को ‘शरीरी’ नाम से कहा है। कारण कि संसार में जैसे धन के सम्बन्ध से मनुष्य ‘धनी’ कहलाता है, ऐसे ही शरीर के सम्बन्ध से स्वरूप ‘शरीरी’ कहलाता है। जैसे धन का सम्बन्ध न रहने पर धनी (मनुष्य) तो रहता है, पर उसका नाम ‘धनी’ नहीं रहता, ऐसे ही शरीर का सम्बन्ध न रहने पर शरीरी (स्वरूप) तो रहता है, पर उसका नाम ‘शरीरी’ नहीं रहता। इसी तरह एक ही स्वरूप क्षेत्र के सम्बन्ध से ‘क्षेत्रज्ञ’, दृश्य के सम्बन्ध से ‘द्रष्टा’ और साक्ष्य के सम्बन्ध से ‘साक्षी’ कहलाता है। पर वास्तव में स्वरूप न शरीर है, न शरीरी है; न क्षेत्र है, न क्षेत्रज्ञ है; न दृश्य है, न द्रष्टा है; न साक्ष्य है, न साक्षी है, प्रत्युत चिन्मय सत्तामात्र है।

यहाँ एक बात विशेष समझने की है कि जैसे धन के कारण धनी है, ऐसे शरीर के कारण शरीरी नहीं है। कारण कि जैसे धन और धनी-दोनों एक जाति के हैं, ऐसे शरीर और शरीरी-दोनों एक जाति के नहीं हैं। जैसे धनी का धन में आकर्षण होता है,ऐसे शरीरी का शरीर में कभी आकर्षण नहीं होता, प्रत्युत आकर्षण की मान्यता होती है। धनी में तो धन मुख्यता है, पर शरीरी की शरीर की मुख्यता है ही नहीं। धन के विकार तो धनी में आते हैं, पर शरीर के विकार शरीरी में कभी नहीं आते। इसलिये धन से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर धनी रोता है; पर शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर शरीरी अखण्ड, अपार, असीम आनन्द का अनुभव करता है। धन और धनी के विवेक से मुक्ति नहीं होती, पर शरीर और शरीरी के विवेक से मुक्ति हो जाती है। इसलिये धन के सम्बन्ध-विच्छेद से धनी मुक्त नहीं होता, प्रत्युत निधन अथवा विरक्त हो जाता है, पर शरीर के सम्बन्ध-विच्छेद से शरीरी सदा के लिये मुक्त हो जाता है। कारण कि शरीर संसार का बीज है। अतः जिसका शरीर के साथ सम्बन्ध है, उसका संसार मात्र के साथ सम्बन्ध है। शरीर के साथ सम्बन्ध-विच्छेद होने पर संसार मात्र से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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