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मेरे तो गिरधर गोपाल
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सत्संग बड़े भाग्य से मिलता है- ‘बड़े भाग्य पाइब सतसंगा’। परन्तु जिस ग्रन्थ में भाग्य की बात लिखी है, उसी ग्रन्थ में यह भी लिखा है- ‘जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू।।’सच्ची लालसा वाले को सच्चा सत्संग अवश्य मिलेगा। जिसके भीतर कल्याण की सच्ची लालसा है, उसको कल्याण का मौका मिलेगा-इसमें कोई सन्देह नहीं है। इसमें भाग्य का काम है ही नहीं। सांसारिक धन की प्राप्ति के लिये तीन बातों का होना जरूरी है- धन की इच्छा हो, उसके लिये उद्योग किया जाय और भाग्य साथ दे। परन्तु परमात्मा इच्छा मात्र से मिलते हैं। कारण कि मनुष्य शरीर मिला ही परमात्मा की प्राप्ति के लिये है। अगर परमात्मा नहीं मिले तो मनुष्य जन्म सार्थक ही क्या हुआ? इसलिये सांसारिक कामनाओं का त्याग करके केवल स्वरूप की जिज्ञासा अथवा परमात्मा की लालसा जाग्रत् करो। इसी में मनुष्य जन्म की सार्थकता है।

जब तक कामना रहती है, तब तक जीव संसारी रहता है। कामना मिटने पर जब जिज्ञासा पूर्ण हो जाती है, तब जीव की अपने अव्यक्त स्वरूप में स्थिति हो जाती है। फिर वह स्वरूप जिसका अंश है, उसके प्रेम की लालसा जाग्रत् होती है। स्वयं अव्यक्त होते हुए भी ज्ञान में केवल अद्वैत रहता है और भक्ति में कभी द्वैत होता है, कभी अद्वैत होता है। भक्ति में भक्त अपनी तरफ देखता है तो द्वैत होता है और भगवान् की तरफ देखता है तो अद्वैत होता है अर्थात् अपनी तरफ देखने से ‘मैं भगवान् का हूँ तथा भगवान मेरे हैं’- यह अनुभव होता है और भगवान् की तरफ देखने से ‘सब कुछ केवल भगवान ही हैं’- यह अनुभव होता है। इस प्रकार द्वैत और अद्वैत-दोनों होने से प्रेम का प्रतिक्षण वर्धमान होता है।
मानव मात्र का कल्याण करने के लिये तीन योग हैं- कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग। यद्यपि तीनों ही योग कल्याण करने वाले हैं, तथापि इनमें एक सूक्ष्म भेद है कि कर्मयोग तथा ज्ञानयोग- दोनों साधन हैं और भक्तियोग साध्य है। भक्तियोग सब योगों का अन्तिम फल है। कर्मयोग तथा ज्ञानयोग- दोनों लौकिक निष्ठाएँ हैं, पर भक्तियोग अलौकिक निष्ठा हैं। शरीर और शरीरी- दोनों हमारे जानने में आते हैं, इसलिये ये दोनों ही लौकिक हैं। परन्तु परमात्मा हमारे जानने में नहीं आते, प्रत्युत केवल मानने में आते हैं, इसलिये वे अलौकिक हैं। शरीर को लेकर कर्मयोग, शरीरी को लेकर ज्ञानयोग और परमात्मा को लेकर भक्तियोग चलता है। कर्मयोग भौतिक साधना है, ज्ञानयोग आध्यात्मिक साधना है और भक्तियोग आस्तिक साधना है।

गीता ने कर्मयोग और ज्ञानयोग- दोनों का समकक्ष बताया है- ‘लोकेऽस्मिनिद्विधा निष्ठा’ कर्मयोग और ज्ञानयोग- दोनों से एक ही तत्त्व की प्राप्ति होती है- ‘एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विंदते फलम्’ ‘यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते’।साधक चाहे कर्मयोग से चले, चाहे ज्ञानयोग से चले, दोनों का एक ही फल होता है।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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