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मेरे तो गिरधर गोपाल
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यहाँ शंका हो सकती है कि भगवान् में राजस-तामस भाव कैसे होते हैं? इसका समाधान है कि जैसे घर एक ही होता है, पर उसमें रसोई भी होता है और शौचालय भी अथवा एक ही शरीर शरीर में उत्तमांग भी होते हैं और अधमांग भी, ऐसे ही एक भगवान् में सात्त्विक भाव भी हैं और राजस-तामस भाव भी।

संसार को मिथ्या मानकर केवल भगवान को सत्य मानना भी एक पद्धति (साधन-मार्ग) है। पर इस पद्धति में संसार बहुत दूर तक साथ रहता है। कारण कि त्याग करने से त्याज्य वस्तु की सूक्ष्म सत्ता बनी रहती है। इसलिये इस पद्धति में भगवान् से अभेद तो होता है, पर अभिन्नता (आत्मीयता) नहीं होती। परन्तु जो संसार रूप से भगवान् को देखते हैं, वे भगवान् के साथ अभिन्न हो जाते हैं।

साधकों की प्रायः यह शिकायत रहती है कि यह जानते हुए भी कि संसार की कोई भी वस्तु अपनी नहीं है, जब कोई वस्तु सामने आती है तो उसका असर पड़ जाता है। इस विषय में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। एक बात तो यह है कि असर पड़े तो परवाह मत करो अर्थात उसकी उपेक्षा कर दो। न तो उसको अच्छा समझो, न बुरा समझो। न उसके बने रहने की इच्छा करो, न मिटने की इच्छा करो। उससे उदासीन हो जाओ। दूसरी बात यह है कि असर वास्तव में मन-बुद्धि पर पड़ता है, आप पर नहीं पड़ता। अतः उसको अपने में मत मानो।

किसी वस्तु से राग होने पर भी सम्बन्ध जुड़ता है और द्वेष होने पर भी सम्बन्ध जुड़ता है। भगवान श्रीराम वन में गये तो उनके साथ जिन ऋषि-मुनियों ने स्नेह किया, उनका उद्धार हो गया और जिन राक्षसों ने द्वेष किया, उनका भी उद्धार हो गया, पर जिन्होंने न राग किया, न द्वेष किया, उनका उद्धार नहीं हुआ; क्योंकि उनका सम्बन्ध भगवान् के साथ नहीं जुड़ा। इसी तरह संसार का असर मन में पड़े तो उसमें राग-द्वेष करके उसके साथ अपना सम्बन्ध मत जोड़ो। आप भगवान् के भजन-साधन में लगे रहो। संसार का असर हो जाय तो होता रहे, अपना उससे कोई मतलब नहीं- इस तरह उसकी उपेक्षा करो दो।

जैसे आप कुत्ते के मन के साथ अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानते, ऐसे ही अपने मन के साथ भी अपना कोई सम्बन्ध मत मानो। कुत्ते का मन और आपका मन एक ही जाति के हैं। जब कुत्ते का मन आपका नहीं है तो यह मन भी आपका नहीं है। मन जड़ प्रकृति का कार्य है, आप चेतन परमात्मा के अंश हो। जैसे कुत्ते के मन में संसार का असर पड़ने से आप में कोई फर्क नहीं पड़ा, ऐसे ही इस मन का भी आप में कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिये।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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