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मेरे तो गिरधर गोपाल
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आपके ऐसे मृदुल स्वभाव को सुनकर ही आपके सामने आने की हिम्मत होती है। अगर अपनी तरफ देखें तो आपके सामने आने की हिम्मत नहीं होती। आपने वृत्रासुर, प्रह्लाद, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार वैश्य, धर्मव्याध, कुब्जा, व्रज की गोपियाँ आदि का भी उद्धार कर दिया, यह देखकर हमारी हिम्मत होती है कि आप हमारा भी उद्धार करेंगे।जैसे अत्यन्त लोभी आदमी कूडे़-कचडे़ में पडे़ पैसे को भी उठा लेता है, ऐसे ही आप भी कूडे़-कचडे़ में पडे़ हम-जैसों को उठा लेते हो। थोड़ी बात से ही आप रीझ जाते हो।-‘तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें’।कारण कि आपका स्वभाव है-

रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की।
अगर आपका ऐसा स्वभाव न हो तो हम आपके नजदीक भी न आ सकें; नजदीक आने की हिम्मत भी न हो सके! आप हमारे अवगुणों की तरफ देखते ही नहीं। थोड़ा भी गुण हो तो आप उस तरफ देखते हो। वह थोड़ा भी आपकी दृष्टि से है। हे नाथ! हम विचार करें तो हमारे में राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह अभिमान आदि कितने ही दोष भरे पड़े हैं। हमारे से आप ज्यादा जानते हो, पर जानते हुए भी आप उनको मानते नहीं- ‘जन अवगुन प्रभु मान न काऊ’, इसी से हमारा काम चलता है प्रभो! कहीं आप देखने लग जाओ कि यह कैसा है, तो महाराज! पोल-ही-पोल निकलेगी।
हे नाथ! बिना आपके कौन सुनने वाला है? कोई जानने वाला भी नहीं है! हनुमान् जी विभीषण से कहते हैं कि मैं चंचल वानरकुल में पैदा हुआ हूँ। प्रातःकाल जो हम लोगों का नाम भी ले ले तो उस दिन उसको भोजन न मिले! ऐसा अधम होने पर भी भगवान् ने मेरे पर कृपा की फिर तुम तो पवित्र ब्राह्मण कुल में पैदा हुए हो! कानों से ऐसी महिमा सुनकर ही विभीषण आपकी शरण में आये और बोले-

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर। त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर।
जो आपकी शरण में आ जाता है, उसकी आप रक्षा करते हो, उसको सुख देते हो, यह आपका स्वभाव है- ऐसो को उदार जग माहीं। बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर, राम सरिस कोउ नाहीं।।हरेक दरबार में दीन का आदर नहीं होता। जब तक हमारे पास कुछ धन-सम्पत्ति है, कुछ गुण है, कुछ योग्यता है तभी तक दुनिया हमारा आदर करती है। दुनिया तो हमारे गुणों का आदर करती है, हमारा खुद का (स्वरूप का) नहीं। परन्तु आप हमारा खुद का आदर करते हो, हमें अपना अंश मानते हो-‘ममैवांशो जीवलोके’ सब मम प्रिय सब मम उपजाए’ ।हमें अपना अंश मानते ही नहीं, स्पष्टतया जानते हो और अपना जानकर कृपा करते हो। हमारे अवगुणों की तरफ आप देखते ही नहीं। बच्चा कैसा ही हो, कुछ भी करे, पर ‘अपना है’- यह जानकर माँ कृपा करती है, नहीं तो मुफ्त में कौन आफत मोल ले महाराज?
हे नाथ! जो कुछ भी हमें मिलता है, आपकी कृपा से ही मिलता है। परन्तु उसको हम अपना मान लेते हैं कि यह तो हमारी ही है। यह आपकी खास उदारता और हमारी खास भूल है। महाराज! आपकी देने की रीति बड़ी विलक्षण है! सब कुछ देकर भी आपको याद नहीं रहता कि मैंने कितना दिया है? आपके अन्तःकरण में हमारे अवगुणों की छाप ही नहीं पड़ती। आपका अन्तःकरण रूपी कैमरा कैसा है, इसको आप ही जानते हो! उसमें अवगुण तो छपते ही नहीं, गुण-ही-गुण छपते हैं। ऐसा आपका स्वभाव है! सिवाय आप में अपनेपन के और हमारे पास क्या है महाराज! आप हमें अपना जानते हैं, मानते हैं, स्वीकार करते हैं तभी काम चलता है नाथ! नहीं तो बड़ी मुश्किल हो जाती! हम जी भी नहीं सकते थे! केवल आपकी कृपा का ही आसरा है, तभी जीते हैं-

आप कृपा को आसरो, आप कृपा को जोर।
आप बिना दीखे नहीं, तीन लोक में और।।

(साभार- स्वामी रामसुखदास जी)
समाप्त

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