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मेरे तो गिरधर गोपाल
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भगवान् का मिलन और विरह दोनों ही नित्य हैं, अनिर्वचनीय हैं, दिव्य हैं, जिनसे प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है। मिलन में प्रेम को अपने में प्रेम की कमी मालूम देती है कि जैसे भगवान् हैं, वैसा (भगवान् के लायक) मेरे में प्रेम नहीं है; और विरह में प्रेम को कभी प्रेमास्पद की विस्मृति नहीं होती, प्रत्युत निरन्तर स्मृति (तल्लीनता) बनी रहती है। यह मिलन और विहर-दोनों भगवान् देते हैं और दोनों भगवत्स्वरूप ही होते हैं। वे ‘विरह’ इसलिये देते हैं कि भक्त अपने में प्रेम की कमी का अनुभव करे और कमी का अनुभव होने से प्रेम बढ़े। वे ‘मिलन’ इसलिये देते हैं कि भक्त प्रेम का अनुभव करे, आस्वादन करे।
भक्त का भगवान् में दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि कोई भी भाव हो, भक्त की अपनी अलग सत्ता नहीं होती; क्योंकि प्रेम में भक्त और भगवान् एक होकर दो होते हैं और दो होकर भी एक रहते हैं। इसलिये प्रेमी और प्रेमास्पद-दोनों में कभी सेवक स्वामी हो जाता है, कभी स्वामी सेवक हो जाता है। शंकर जी के लिये कहा भी है- ‘सेवक स्वामि सखा सिय पी के’।दक्षिण भारत में एक मन्दिर है, जिसमें शंकर जी ने नन्दी को उठा रखा है! कभी नन्दी के ऊपर शंकर जी हैं, कभी शंकर जी के ऊपर नन्दी हैं! कभी भगवान् भक्त के इष्ट बन जाते हैं, कभी भक्त भगवान् का इष्ट बन जाता है-‘इष्टोअसि मे दृढमिति’।कभी श्रीकृष्ण-राधा बन जाते हैं, कभी राधा श्रीकृष्ण बन जाती हैं।ज्ञान का अखण्ड रस तो शान्त है, पर प्रेम का अनन्त रस प्रतिक्षण वर्धमान है। प्रतिक्षण वर्धमान कहने का अर्थ यह नहीं है कि प्रेम में कुछ कमी रहती है और उस कमी की पूर्ति के लिये वह बढ़ता है। वास्तव में प्रेम कम या अधिक नहीं होता। जैसे, समुद्र भीतर से शान्त रहता है, पर बाहर से उस पर लहरें उठती हैं और चन्द्रमा को देखकर उसमें उछाल आता है। परन्तु लहरें उठने पर, उछाल आने पर भी समुद्र का जल कम-ज्यादा नहीं होता, उतना-का-उतना ही रहता है। ऐसे ही प्रेम के अनन्त रस में लहरें उठती हैं, उछाल आता है, पर वह कम-ज्यादा नहीं होता। जब प्रेम शान्त रहता है, तब प्रेम और प्रेमास्पद एक अर्थात् अभिन्न होते हैं; और जब प्रेम में उछाल आता है, तब प्रेमी और प्रेममास्पद दो होते हैं। प्रेमी और प्रेमास्पद एक होते हुए भी दो होते हैं- यह विरह है और दो होकर भी एक ही रहते हैं-यह मिलन है।
इस प्रकार प्रतिक्षण वर्धमान रस (प्रेम)-का ही नाम ‘रस’ है। कल्पना करें कि किसी को ऐसी प्यास लगे, जो कभी बुझे नहीं और जल भी घटे नहीं तथा पेट भी भरे नहीं तो ऐसी स्थिति में जल के प्रत्येक घूँट में नित्य नया रस मिलेगा। इसी तरह प्रेम में भी श्रीकृष्ण को देखकर श्रीजी को और श्रीजी को देखकर श्रीकृष्ण को नित्य नया रस मिलता है और उन दोनों के रस का अनुभव गोपियाँ करती हैं! प्रेम की इस वृद्धि का नाम ही ‘रासलीला’ है।
जो मनुष्य संसार से दुःखी होकर ऐसा सोचता है कि कोई तो अपना होता, जो मुझे अपनी शरण में लेकर, अपने गले लगाकर मेरे दुःख, सन्ताप, पाप, अभाव, भय, नीरसता, आदि को हर लेता, उसको भगवान् अपनी भक्ति प्रदान करते हैं। परन्तु जो मनुष्य केवल संसार के दुःखों से मुक्त होता चाहता है, पराधीनता से छूटकर स्वाधीन होना चाहता है, उसको भगवान् मुक्ति प्रदान करते हैं। मुक्त होने पर वह ‘स्व’ में स्थित हो जाता है- ‘समदुःखसुखः स्वस्थः’।स्व’ में स्थित होने पर ‘स्व’-पना अर्थात् व्यक्तित्व का सूक्ष्म अहंकार रह जाता है, जिसके कारण उसको ‘अखण्ड आनन्द’ का अनुभव होता है। जीव परमात्मा का अंश है। अंश का अंशी की तरफ स्वतः आकर्षण होता है। अतः ‘स्व’ में स्थित अर्थात् मुक्त होने के बाद जब उसको मुक्ति में भी सन्तोष नहीं होता, तब ‘स्व’ का ‘स्वकीय’ (परमात्मा)-की तरफ स्वतः आकर्षण होता है। कारण कि मुक्त होने पर जीव के दुःखों का अन्त और जिज्ञासा की पूर्ति तो हो जाती है, पर प्रेम-पिपासा शान्त नहीं होती। तात्पर्य है कि प्रेम की जागृति बिना स्वयं की भूख का अत्यन्त अभाव नहीं होता। स्वकीय की तरफ आकर्षण होने से अर्थात् प्रेम जाग्रत् होने से अखण्ड आनन्द ‘अनन्त आनन्द’ में बदल जाता है और व्यक्तित्व का सर्वथा नाश हो जाता है।मुक्त होने से पहले जीव और भगवान् में जो भेद होता है, वह बन्धन में डालने वाला होता है, पर मुक्त होने के बाद जीव (प्रेमी) और भगवान् (प्रेमास्पद)-में जो प्रेम के लिये स्वीकृत भेद होता है, वह अनन्त आनन्द देने वाला होता है-
द्वैतं मोहाय बोधात्प्राग्जाते बोधे मनीषया।
भक्त्यर्थ कल्पितं द्वैतमद्वैतादपि सुन्दरम्।
बोध से पहले का द्वैत मोह में डाल सकता है, पर बोध हो जाने पर भक्ति के लिये कल्पित अर्थात् स्वीकृत द्वैत अद्वैत से भी अधिक सुन्दर होता है।’कारण कि बोध से पहले का भेद अहम् के कारण होता है और बोध के बाद का (प्रेम की वृद्धि के लिये होने वाला) भेद अहम् का नाश होने पर होता है।जैसे संसार में ‘किसी वस्तु का ज्ञान होने पर ज्ञान बढ़ता नहीं, प्रत्युत अज्ञान मिट जाता है, ऐसे ही ज्ञान मार्ग में स्वरूप का ज्ञान होने पर अज्ञान को मिटाकर ज्ञान खुद भी शान्त हो जाता है और स्व-स्वरूप स्वतः ज्यों-का-त्यों रह जाता है। इसलिये ज्ञानमार्ग में अखण्ड, शान्त एकरस आनन्द मिलता है। परन्तु जैसे संसार में किसी वस्तु में आसक्ति होने पर फिर आसक्ति बढ़ती ही रहती है-‘जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकोई’, ऐसे ही भक्ति मार्ग में भगवान् में प्रेम होने पर फिर वह प्रेम बढ़ता ही रहता है। इसलिये भक्तिमार्ग में अनन्त, प्रतिक्षण वर्धमान आनन्द मिलता है। तात्पर्य यह हुआ कि आकर्षण में जो आनन्द है, वह ज्ञान में नहीं है। सांसारिक वस्तु का ज्ञान तो बाँधता है, पर स्वरूप का ज्ञान मुक्त करता है। इसी तरह सांसारिक वस्तु का आकर्षण तो अपार दुःख देता है, पर भगवान् का आकर्षण अनन्त आनन्द देता है।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमश:)
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