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मेरे तो गिरधर गोपाल
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उस समय कुछ गोपियों को उनके पति, पुत्र आदि ने अथवा पिता, भाई आदि ने घर में ही बन्द कर दिया, जिससे उनको घर से निकलने में मार्ग नहीं मिला। मार्ग न मिलने पर उन गोपियों की क्या दशा हुई- इस विषय में श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं-

दुःसहप्रेष्ठाविरहतीव्रतापधुताशुभाः।
ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेषनिर्वृत्या क्षीणमंगलाः।।
तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि संगताः।।
जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः।।(श्रीमदा0 10/21/10-11)

‘उन गोपियों के हृदय में अपने परम प्रियतम श्रीकृष्ण के असह्य विरह का जो तीव्र ताप हुआ, उससे उनका अशुभ जल गया और ध्यान में आये हुए श्रीकृष्ण का आलिंगन करने से जो सुख हुआ, उससे उनका मंगल नष्ट हो गया।’

‘यद्यपि उन गोपियों की श्रीकृष्ण में जारबुद्धि थी, फिर भी एकमात्र परमात्मा (श्रीकृष्ण)-के साथ सम्बन्ध होने से उनके सम्पूर्ण बन्धन तत्काल एवं सर्वथा नष्ट हो गये और उन्होंने अपने गुणमय शरीर का त्याग कर दिया।’
अगर उपर्युक्त श्लोकों पर विचार करते हुए ऐसा मानें कि भगवान् के विरह की तीव्र जलन से गोपियों के पाप नष्ट हो गये- ‘धुताशुभाः’ तथा ध्यान जनित सुख से पुण्य नष्ट हो गये- ‘क्षीणमगंलाः’ और इस प्रकार पाप-पुण्य से रहित (मुक्त) होकर वे भगवान् से जा मिलीं तो यह बात युक्तिसंगत नहीं दीखती। कारण कि विरह और मिलन पाप-पुण्य से ऊँचा उठने पर ही होते हैं। पाप-पुण्य से होने वाले सुख-दुःख (मिलन-विरह) प्राकृत नहीं हैं, प्रत्युत अलौकिक हैं। भगवान् का विरह और मिलन तो गुणों से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर होता है, पर पाप और पुण्य गुणों के सम्बन्ध से होते हैं। गुणों से सम्बन्ध न हो तो पाप-पुण्य हो सकते ही नहीं। भगवान् के प्रेम में होने वाले सुख-दुःख को अर्थात् मिलन-विरह को पाप-पुण्य का फल कहना वास्तव में उसकी निन्दा है। भगवान् के सम्बन्ध से योग होता है, भोग नहीं होता। भोग तो पापों का कारण है।

एक विचारणीय बात है कि पाप और पुण्य का नाश सुखी-दुःखी होने से नहीं होता, प्रत्युत अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आने से होता है। सुखी-दुःखी होना पाप-पुण्य का फल नहीं है, प्रत्युत अज्ञता (मूर्खता)-का फल है। परन्तु भगवान् का विरह प्रेम का फल है। भगवान् से सम्बन्ध होने पर अज्ञता कैसे रह सकती है! अज्ञता न ज्ञान में रहती है, न प्रेम में। मनुष्य तभी तक सुखी-दुःखी होता है, जब तक उसको अपने स्वरूप का बोध नहीं होता अथवा उसका भगवान् में प्रेम नहीं होता।
पाप-पुण्य नष्ट होना कोई बड़ी बात नहीं है। पाप-पुण्य तो हरेक आदमी के नष्ट होते रहते हैं; क्योंकि अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति हरेक प्राणी के सामने आती-जाती रहती है। स्वर्ग में निरन्तर पुण्यों का नाश होता है और नरकों में निरन्तर पापों का नाश होता है। पाप-पुण्य प्रकृतिजन्य गुणों के अन्तर्गत हैं। अतः पाप-पुण्य दोनों एक ही जाति के (बन्धन कारक) हैं, अशुभ हैं, मलिन हैं, उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं। परन्तु भगवान् के सम्बन्ध से होने वाले विरह तथा मिलन अत्यन्त दिव्य हैं, चिन्मय हैं, अलौकिक हैं, नित्य हैं और प्रेम की वृद्धि करने वाले हैं। भगवान् के सम्बन्ध से केवल पाप-पुण्य ही नष्ट नहीं होते, प्रत्युत पाप-पुण्य का कारण अज्ञान (गुणसंग) ही नष्ट हो जाता है। इसलिये पाप-पुण्य का और विरह-मिलन का विभाग ही अलग है।

तत्त्व ज्ञान होने पर ज्ञानी पुरुष परिस्थिति से रहित नहीं होता, प्रत्युत सुख-दुःख से रहित होता है। ज्ञानी के सामने भी प्रारब्ध के अनुसार अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थिति आती-जाती रहती है, पर उस पर परिस्थिति का असर नहीं होता अर्थात् वह सुखी-दुःखी नहीं होता; क्योंकि वह गुणातीत है-‘समदुःखसुखः स्वस्थः’।अगर अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति सुख-दुःख देने वाली होती अर्थात् सुख-दुःख पाप-पुण्य का फल होता तो मनुष्य सुख-दुःख से रहित नहीं हो पाता, जबकि ज्ञानी पुरुष सुख-दुःख से रहित हो जाता है-‘द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखखसंज्ञैः’।प्रह्लाद जी, मीराबाई, आदि के सामने कितनी ही प्रतिकूल परिस्थितियाँ आयीं, फिर भी वे दुःखी नहीं हुए। इसलिये परिस्थिति से रहित होने में मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है, पर उसका भोग न करने में अर्थात् सुखी-दुःखी न होने में मनुष्य सर्वथा स्वतन्त्र है। कारण कि परमात्मा का अंश होने से उसमें निर्विकारता स्वतः सिद्ध है।अतः भागवत के उपर्युक्त श्लोकों में आये ‘धुताशुभाः’ पद का अर्थ पाप नष्ट होना और ‘क्षीणमंगलाः’ पद का अर्थ पुण्य नष्ट होना नहीं लिया जा सकता। तो फिर इन पदों का क्या तात्पर्य है? अब इस पर विचार किया जाता है।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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