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मेरे तो गिरधर गोपाल
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संसार की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। उसको जीव ने ही अहंता-ममता-कामना के कारण स्वतन्त्र सत्ता दी है। जब तक साधक में अहंता-ममता-कामना रहती है, तब तक उसको यह मानना चाहिये कि परमात्मा में संसार है और संसार में परमात्मा है। परन्तु जब उसकी अहंता-ममता-कामना मिट जायगी, तब उसकी दृष्टि में न संसार में परमात्मा रहेंगे, न परमात्मा में संसार रहेगा, प्रत्युत परमात्मा-ही-परमात्मा रहेंगे। परमात्मा में संसार को देखना अथवा संसार में परमात्मा को देखना अधूरी आस्तिकता है। परन्तु केवल परमात्मा को ही देखना पूरी आस्तिकता है।

भगवान ने कहा है- ‘ममैवांशो जीवलोके’।भगवान का अंश होने के कारण जीव का सम्बन्ध केवल भगवान के साथ है, प्रकृति के साथ बिलकुल नहीं है। इसलिये जड़-चेतन का ठीक-ठीक विवेक करना साधक के लिये बहुत आवश्यक है। साधक को यह जानना चाहिये कि हमारा विभाग ही अलग है। हम चेतन-विभाग में हैं।

जड़-विभाग से हमारा किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। सम्पूर्ण पदार्थ और क्रियाएँ जड़-विभाग में हैं। चेतन-विभाग में न पदार्थ है, न क्रिया। वास्तव में पदार्थ और क्रिया की सत्ता ही नहीं है। इसलिये साधक को पदार्थ और क्रिया से रहित होना नहीं है, प्रत्युत वह स्वतः इनसे रहित है। साधक अव्यक्त (निराकार) और अक्रियरूप है। मात्र ‘करना’ प्रकृति का और ‘न करना’ स्वयं का होता है। परमात्मा तत्त्व ज्यों-का-त्यों विद्यमान है, उसके लिये कुछ न करने की जरूरत है। करने का आश्रय प्रकृति का आश्रय है। वह छोड़ दिया तो तत्त्व ज्यों-का-त्यों रहा। तत्त्व में न पदार्थ है, न क्रिया है, प्रत्युत केवल विश्राम है।भगवान ने जीवात्मा के लिये कहा है- ‘नित्यः सर्वगतः’ ‘येन सर्वमिदं ततम्’ अर्थात् इस जीवात्मा से यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है, यह नित्य रहने वाला और सबमें परिपूर्ण है। इसलिये साधक को चाहिये कि वह शरीर-अन्तःकरण को न देखकर अपनी सर्वव्यापी सामान्य सत्ता में स्थित हो जाय। जो सब जगह व्याप्त है, वही साधक का स्वरूप है। उसका स्वरूप शरीर-अन्तःकरण में नहीं है। साधक में ‘मैं हूँ’ की मुख्यता न होकर ‘है’ की मुख्यता रहे। जो ‘है’, वही वास्तव में अपना है।

गीता में भगवान ने कहा है- ‘मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति’ और सन्त-महात्माओं का भी अनुभव है- ‘वासुदेवः सर्वम्’।भगवान् और उनके भक्त- ये दो ही संसार का अकारण हित करने वाले हैं।इसलिये इन दोनों की बात मान लेनी चाहिये। उनकी बात के आगे हमारी बात का कोई मूल्य नहीं है। हमें भले ही वैसा न दीखे, पर बात उनकी ही सच्ची है। इसलिये हमें जगत को जगत्-रूप से न देखकर भगवत-रूप से ही देखना चाहिये। संसार में जो सात्त्विक, राजस और तामस भाव (गुण, पदार्थ और क्रिया) देखने में आते हैं, वे भी भगवान के ही स्वरूप हैं। भगवान् के स्वरूप होते हुए भी वे गुण हमारे उपास्य नहीं हैं। हमारा उपास्य गुणातीत है। इसलिये भगवान् ने कहा है- ‘न त्वहं तेषु ते मयि’ ‘मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं’। गुण उपास्य इसलिये नहीं हैं कि हमें तीनों गुणों से ऊँचा उठना है। कारण कि जो मनुष्य तीनों गुणों से मोहित होता है, वह गुणातीत भगवान् को नहीं जानता।जो गुणों से मोहित नहीं होते, उनको सब जगह भगवान् ही दीखते हैं, पर गुणों से मोहित मनुष्य को संसार ही दीखता है, भगवान नहीं दीखते।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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