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मेरे तो गिरधर गोपाल
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अर्थात् प्रकृति माता है और मैं उसमें बीज-स्थापन करने वाला पिता हूँ, जिससे सम्पूर्ण प्राणी पैदा होते हैं। अतः प्राणियों में प्रकृति का अंश भी है और परमात्मा का भी। परन्तु जो जीवात्मा है, उसमें केवल परमात्मा का ही अंश है-‘ममैवांशः’ (मम एव अंशः) । देवता, भूत-प्रेत, पिशाच आदि जितने भी शरीर हैं, उन सब में जड़ और चेतन- दोनों रहते हैं। देवताओं के शरीर में तैजस-तत्त्व की प्रधानता है, भूत-प्रेतों के शरीर में वायु-तत्त्व की प्रधानता है, मनुष्यों के शरीर में पृथ्वी-तत्त्व की प्रधानता है, आदि। भिन्न-भिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न तत्त्व की प्रधानता रहती है। यद्यपि सभी शरीरों में मुख्यता चेतन की ही है, पर वह शरीर में मैं-मेरापन करके उसी को मुख्य मान लेता है। जड़ शरीर की मुख्यता मानता ही जन्म-मरण का कारण है- ‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’।गुणों का संग होने से ही जीव की तीन गतियाँ होती हैं। जो सत्त्वगुण में स्थित होते हैं, वे ऊर्ध्वगति में जाते हैं। जो रजोगुण में स्थित होते हैं, वे मध्यलोक में जाते हैं। जो तमोगुण में स्थित होते हैं, वे अधोगति में जाते हैं-

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः।

इस प्रकार जड़-चेतन के विभाग को ठीक तरह से समझना चाहिये। जड़-अंश (शरीर) छूट जाता है, हम रह जाते हैं। जब तक मुक्ति नहीं होती, तब तक जड़ता साथ में रहती है। इसलिये एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाने पर स्थूल शरीर तो छूट जाता है, पर सूक्ष्म और कारण शरीर साथ में रहते हैं। मुक्ति होने पर केवल चेतनता रहती है, जड़ता साथ में नहीं रहती अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीर साथ में नहीं रहते। परन्तु इसमें एक बहुत सूक्ष्म बात है कि मुक्ति होने पर भी जड़ता का संस्कार रहता है। वह संस्कार जन्म-मरण देने वाला तो नहीं होता, पर मतभेद करने वाला होता है। जैसे द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत और अचिन्त्यभेदाभेद- ये पाँच मुख्य मतभेद हैं, जो शैव और वैष्णव आचार्यों में रहते हैं। जब तक मतभेद हैं, तब तक जड़ता का संस्कार है। परन्तु मुक्ति के बाद जब भक्ति होती है, तब जड़ता का यह सूक्ष्म संस्कार भी मिट जाता है। भगवान् के प्रेमी भक्तों में जड़ता सर्वथा नहीं रहती, केवल चेतनता रहती है। जैसे, राधा जी सर्वथा चिन्मय है।

मनुष्यों के कल्याण के लिये तीन योग बताये गये हैं- कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग कर्मयोग और जड़ को लेकर चलता है, ज्ञानयोग चेतन को लेकर चलता है और भक्तियोग भगवान् को लेकर चलता है। कर्मयोग तथा ज्ञानयोग तो लौकिक साधन हैं-‘लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा’, पर भक्तियोग अलौकिक निष्ठा है। कारण कि जगत् (क्षर) तथा जीव (अक्षर)- दोनों लौकिक हैं- ‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके ‘क्षरश्चाक्षर एव च’।परन्तु भगवान् क्षर और अक्षर दोनों से विलक्षण अर्थात् अलौकिक हैं- ‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः’।जिसकी संसार में ही आसक्ति है, जो संसार को मुख्य मानते हैं, जिनका आत्मा की तरफ इतना विचार नहीं है, पर जो अपना कल्याण चाहते हैं, उनके लिये कर्मयोग मुख्य है। अपने-अपने वर्ण-आश्रम के अनुसार निष्कामभाव से अर्थात् केवल दूसरों के हित के लिये कर्तव्य-कर्म करना कर्मयोग है। सकामभाव में जड़ता आती है, पर निष्काम भाव में चेतनता रहती है। निष्कामभाव होने के कारण कर्मयोगी जड़-अंश से ऊँचा उठ जाता है। अगर निष्काम भाव नहीं हो कर्म होंगे, कर्मयोग नहीं होगा। कर्मों से मनुष्य बँधता है- ‘कर्मणा बध्यते जन्तुः’।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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