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मेरे तो गिरधर गोपाल
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फिर स्वरूप जिसका अंश है, उस परमात्मा को अपना मानने से, उसके शरणागत होने से अलौकिक साधना (भक्तियोग)-की सिद्धि हो जाती है अर्थात् परम प्रेम की प्राप्ति हो जाती है। परम प्रेम की प्राप्ति में ही मनुष्य जन्म की पूर्णता है।इसलिये साधक को आरम्भ से ही इस सत्य को स्वीकार कर लेना चाहिये कि मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिये नहीं है। कारण कि मैं परा प्रकृति (चेतन) हूँ, जो कि परमात्मा का अंश है और शरीर-संसार अपरा प्रकृति (जड़) है। अपरा प्रकृति अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी हमारी वास्तविक इच्छा की पूर्ति नहीं कर सकती अर्थात हमें अमर नहीं बना सकती, हमारा अज्ञान नहीं मिटा सकती और हमें सदा के लिये सुखी नहीं कर सकती।

प्रश्न- सत्संग में ऐसी बातें सुनते हुए भी जब व्यवहार करते हैं, तब राजी-नाराज हो जाते हैं, क्या करें?

उत्तर- व्यवहार में राजी-नाराज हो जाते हैं तो यह बालकपना है। बच्चे खेलते हैं तो वे मिट्टी इकट्ठी करके पहाड़, मकान आदि बना देते हैं और उसमें लाइन खींच देते हैं कि इतनी जमीन मेरी है, इतनी तुम्हारी है। दूसरा बच्चा जमीन ले लेता है तो लड़ने लग जाते हैं कि तुमने हमारी जमीन कैसे ले ली? यह तुम्हारी नहीं, हमारी है। कोई बड़ा आदम आकर कहता है कि ‘बच्चो! लड़ते क्यों हो?’ वे कहते हैं कि हमने पहले लकीर खींची है, इसलिये यह हमारी है। वह आदमी कहता है कि अच्छा, तुम ऐसा-ऐसा कर दो तो दोनों राजी हो जाते हैं। इतने में माँ बुलाती है कि ‘अरे बच्चों! आओ, भोजन का समय हो गया’ तो बच्चे झट उठकर चल देते हैं। अब उनका जमीन से कोई मतलब नहीं! इसी तरह हम कहते हैं कि धन-सम्पत्ति हमारी है, जमीन हमारी है आदि। वास्तव में न हमारी है, न तुम्हारी है। यह तो खेल है, तमाशा है!

एक दिन धन-सम्पत्ति, जमीन आदि सबको छोड़कर जाना पड़ेगा। इनकी याद तक नहीं रहेगी। पिछले जन्म में हमारा कौन-सा घर था, कौन-सा कुटुम्ब था, अब याद है क्या? इस संसार की कोई भी वस्तु व्यक्तिगत नहीं है। जैसे धर्मशाला सबके लिये होती है है, ऐसे ही यह संसार सबके लिये है। इसलिये मकान वही रहते हैं, जमीन वही रहती है, पर आदमी बदलते रहते हैं। इन बातों की तरफ आपका ध्यान जाना चाहिये। सत्संग करने वालों का इन बातों की तरफ ध्यान नहीं जायगा तो फिर किसका जायगा? सत्संग भी करते हो और राग-द्वेष भी करते हो तो वास्तव में सत्संग किया ही नहीं, सत्संग सुना ही नहीं, सत्संग समझा ही नहीं, सत्संग की हवा ही नहीं लगी! सत्संग में राग-द्वेष, काम-क्रोध कम नहीं होंगे तो फिर कैसे कम होंगे? यदि आपके भावों में आचरणों में फर्क नहीं पड़ा तो सत्संग क्या किया! कोरा समय ख़राब किया! सत्संग करे और फर्क नहीं पड़े-यह हो ही नहीं सकता। सत्संग करेगा तो फर्क जरूर पड़ेगा। फर्क नहीं पड़ा तो असली सत्संग मिला नहीं है। असली सत्संग मिले तो फर्क पड़े बिना रह सकता ही नहीं।

अभिमान के विषय में रामायण में आया है-

संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना।

जितनी भी आसुरी-सम्पत्ति है, दुर्गुण-दुराचार हैं, वे सब अभिमान की छाया में रहते हैं। मैं हूँ- इस प्रकार जो अपना होनापन (अहंभाव) है, वह उतना दोषी नहीं है, जितना अभिमान दोषी है। भगवान का अंश भी निर्दोष है। परन्तु मेरे में गुण हैं, मेरे में योग्यता है, मेरे में विद्या है, मैं बड़ा चतुर हूँ, मैं वक्ता हूँ, मैं दूसरों को समझा सकता हूँ- इस प्रकार दूसरों की अपेक्षा अपने में जो विशेषता दीखती है, यह बहुत दोषी है। अपने में विशेषता चाहे भजन-ध्यान से दीखे, चाहे कीर्तन से दीखे, चाहे जप से दीखे, चाहे चतुराई से दीखे, चाहे उपकार (परहित) करने से दीखे, किसी भी तरह से दूसरों की अपेक्षा विशेषता दीखती है तो यह अभिमान है। यह अभिमान बहुत घातक है और इससे बचना भी बहुत कठिन है।

अभिमान जाति को लेकर भी होता है, वर्ण को लेकर भी होता है, आश्रम को लेकर भी होता है, विद्या को लेकर भी होता है, बुद्धि को लेकर भी होता है। कई तरह का अभिमान होता है। मेरे को गीता याद है, मैं गीता पढ़ा सकता हूँ, मैं गीता के भाव विशेषता से समझता हूँ- यह भी अभिमान है। अभिमान बड़ा पतन करने वाला है। जो श्रेष्ठता है, उत्तमता है, विशेषता है, उसको अपना मान लेने से ही अभिमान आता है। यह अभिमान अपने उद्योग से दूर नहीं होता, प्रत्युत भगवान् की कृपा से ही दूर होता है। अभिमान को दूर करने का ज्यों-ज्यों उद्योग करते हैं, त्यों-त्यों अभिमान दृढ़ होता है। अभिमान को मिटाने का कोई उपाय करें तो वह उपाय ही अभिमान बढ़ाने वाला हो जाता है। इसलिये अभिमान से छूटना बड़ा कठिन है! साधक को इस विषय में बहुत सावधान रहना चाहिये।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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