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मेरे तो गिरधर गोपाल
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कर्मयोग और ज्ञानयोग- ये दोनों साधन हैं और भक्तियोग साध्य है। कई व्यक्ति ऐसा नहीं मानते, प्रत्युत कर्मयोग तथा भक्तियोग को साधन और ज्ञानयोग को साध्य मानते हैं। परन्तु गीता भक्तियोग को ही साध्य मानती है। गीता के अनुसार कर्मयोग और ज्ञानयोग- दोनों निष्ठाएँ समकक्ष हैं, पर भक्ति दोनों से विलक्षण है।

कर्मयोग में दो बातें हैं- कर्म और योग। ऐसे ही ज्ञानयोग में भी दो बातें हैं- ज्ञान और योग। परन्तु भक्तियोग में दो बातें नहीं होतीं। हाँ, भक्तियोग के प्रकार दो हैं- साधन-भक्ति और साध्य-भक्ति।

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ।।

श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन-यह नौ प्रकार की साधन-भक्ति है और प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमाभक्ति साध्य-भक्ति है- ‘मद्भक्तिं लभते पराम्’ इसलिये श्रीमद्भागवत में आया है- ‘भक्त्या संञ्जातया भक्त्या’ ‘भक्ति से भक्ति पैदा होती है’ अर्थात् साधन भक्ति से साध्य भक्ति की प्राप्ति होती है। इस तरह साधक चाहे तो आरम्भ से ही भक्ति कर सकता है। भक्ति का आरम्भ कब होता है? जब भगवान् प्यारे लगते हैं, भगवान् में मन खिंच जाता है। संसार के भोग और रूपये प्यारे लगते हैं- यह सांसारिक (बन्धन में पड़े हुए) आदमी की पहचान है। भगवान् प्यारे लगते हैं- यह भक्त की पहचान है। इसलिये जब रूपये और पदार्थ अच्छे नहीं लगेंगे, इनसे चित्त हट जायगा और भगवान् में लग जायगा, तब भक्ति आरम्भ हो जायगी। जब तक भोगों में और रुपयों में आकर्षण है, तब तक ज्ञान की बड़ी ऊँची-ऊँची बातें कर लो, बन्धन ज्यों-का-त्यों रहेगा। जैसे गीध बहुत ऊँचा उड़ता है, पर उसकी दृष्टि मुर्दे पर रहती है।मांस देखते ही उसकी ऊँची उड़ान खत्म हो जाती है और वह वहीं नीचे गिर पड़ता है। ऐसे ही बड़ी ऊँची-ऊँची बातें करने वाले, व्याख्यान देने वाले रुपयों को और भोगों को देखते ही उन पर गिर पड़ते हैं! जैसे गीध को सड़े-गले एवं दुर्गन्धित मांस में ही रस (आनन्द) आता है, ऐसे ही उनको रुपयों में और भोगों में ही रस आता है। इसलिये गीता ने कहा है-

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ।।

‘उस पुष्पित (दिखाऊ शोभायुक्त) वाणी से जिसका अन्तःकरण हर लिया गया है अर्थात् भोगों की तरफ खिंच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन मनुष्यों की परमात्मा में एक निश्चय वाली बुद्धि नहीं होती।’

जो मान, आदर, बड़ाई, रुपये, भोग आदि में ही रचे-पचे हैं, वे मुक्त नहीं हो सकते। मुक्त अर्थात् बन्धन से रहित तभी हो सकते हैं, जब इनसे ऊँचे उठेंगे।’ ‘भोगैश्वर्य’ का अर्थ है- भोग भोगना और भोग-सामग्री (रूपये, सोना-चाँदी, जमीन, मकान आदि)- का संग्रह करना। इन दोनों में लगे हुए मनुष्य परमात्मा प्राप्ति करना तो दूर रहा, ‘हमें परमात्मा को प्राप्त करना है’- ऐसा निश्चय भी नहीं कर सकते। सत्संग करने वालों का अनुभव है कि भोग और संग्रह की आसक्ति कम होती है और मिटती है। जैसे, हमारी वृत्ति में क्रोध ज्यादा था। अतः थोड़ी-सी बात में क्रोध आ जाता था, बड़े जोर से आता था और काफी देर तक रहता था।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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