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मेरे तो गिरधर गोपाल
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यह (आत्मा) शरीर में रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है।’
तात्पर्य है कि कर्तापन और भोक्तापन शरीर में है, पर हम उसको अपने में मान लेते हैं। इसी बात का विवेचन भगवान ने गीता में आकाश और सूर्य का दृष्टान्त देकर किया है कि जैसे आकाश किसी भी वस्तु से लिप्त नहीं होता, ऐसे ही आत्मा भी किसी देह से लिप्त नहीं होती; और जैसे सूर्य तीनों लोकों को प्रकाशित करता है, ऐसे ही आत्मा सम्पूर्ण शरीरों को प्रकाशित करती है।तात्पर्य है कि सूर्य के प्रकाश में ही वेद का पाठ होता है और सूर्य के प्रकाश में ही व्याध शिकार करता है, पर सूर्य को उन क्रियाओं का न पुण्य लगता है, न पाप। कारण कि सूर्य किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं बनता। भगवान कहते हैं-
 
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।

‘जिसका अहंकृत भाव (मैं कर्ता हूँ- ऐसा भाव) नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह युद्ध में इन सम्पूर्ण प्राणियों को मारकर भी न मारता है और न बँधता है।’

जैसे आकाश भोक्ता नहीं है, ऐसे ही हम भी भोक्ता नहीं हैं और जैसे सूर्य कर्ता नहीं है, ऐसे ही हम भी कर्ता नहीं हैं। स्वरूप में कर्तृत्व-भोक्तृत्व है ही नहीं। यह कितनी विलक्षण, अलौकिक, सच्ची बात है! कर्तृत्व और भोक्तृत्व ही संसार है। कर्तापन और लिप्तपना न हो तो संसार है ही नहीं। स्वयं शरीर में रहता हुआ भी न करता है, न लिप्त होता है। यह साधक मात्र के लिये बड़े काम की बात है। यह भगवान् ने हमारी वस्तु स्थिति बतायी है। इसमें कई दिन, कई महीने, कई वर्ष, कई जन्म लगेंगे- यह बात नहीं है। ऐसा नहीं है कि शरीर के मरने पर मुक्ति होगी। शरीर के रहते हुए भी मुक्ति स्वतः-सिद्ध है- ‘शरीरस्थोऽपि’।

अहंकार से मोहित अन्तःकरण वाला ही अपने को कर्ता मानता है- ‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ अहंकार अपरा प्रकृति है। परन्तु अहंकार से मोहित होते हुए भी वास्तव में वह कर्ता-भोक्ता नहीं है। न तो ब्रह्म कर्ता-भोक्ता है, न जीव कर्ता-भोक्ता है और न आत्मा ही कर्ता-भोक्ता है। कर्ता-भोक्तापन केवल माना हुआ है। इसलिये भगवान ने कहा है कि तत्त्ववेत्ता पुरुष ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा न माने- ‘नैव किंञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’ हम परमात्मा के अंश हैं; अतः हम अहंकार से मोहित नहीं हैं; क्योंकि हम परा प्रकृति हैं और अहंकार अपरा प्रकृति है। अहंकार से हम मोहित नहीं होते, प्रत्युत अन्तःकरण मोहित होता है। अन्तःकरण से अपना सम्बन्ध मानने के कारण हम कर्ता-भोक्ता बन जाते हैं।

अनन्त ब्रह्माण्डों में कोई भी चीज हमारी नहीं है तो शरीर हमारा कैसे हुआ? अहंकार से मोहित अन्तःकरण वाला हमारा कैसे हुआ? तभी भगवान् ने कहा है- ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’। गीता के तेरहवें अध्याय का इकतीसवाँ श्लोक, तीसरे अध्याय का सत्ताईसवाँ श्लोक और पाँचवें अध्याय का आठवाँ श्लोक -इन श्लोकों पर आप एकान्त में बैठकर विचार करें तो बहुत लाभ होगा। जब स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर मैं हूँ ही नहीं तो फिर कर्ता-भोक्तापन अपने में कैसे हुआ? यह बात हमारी-आपकी नहीं है, प्रत्युत गीता की है! ये गीता में भगवान के वचन हैं!

दुष्ट-से-दुष्ट, पापी-से-पापी कोई क्यों हो, सब-के-सब परमात्मा के अंश हैं। आप दृढ़ता से इस बात को स्वीकार कर लें कि हम परमात्मा के अंश हैं। परमात्मा हमारे हैं, संसार हमारा नहीं है प्रत्येक आदमी अपने पिता का होते हुए ही सब कार्य करता है। कोई चाहे रेलवे में काम करे, चाहे बैंक में काम करे, चाहे खेत में काम करे, वह पिता का होते हुए ही सब काम करता है। ऐसे ही हम कोई भी काम करें, परमपिता परमात्मा के होते हुए ही करते हैं। काम करते समय हम दूसरे के नहीं हो जाते।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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