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मेरे तो गिरधर गोपाल
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संसार में हमें दो चीजें दीखती हैं- पदार्थ और क्रिया। ये दोनों ही प्रकृति का कार्य है। साधारण दृष्टि से हम लोगों को संसार में पदार्थ प्रधान दीखता है, पर वास्तव में क्रिया प्रधान है, पदार्थ प्रधान नहीं है। पदार्थ में हरदम परिवर्तन-ही-परिवर्तन होता है तो फिर क्रिया ही हुई, पदार्थ कहाँ हुआ? क्रिया का पुंज ही पदार्थरूप से दीखता है। वह क्रिया भी बदलने वाली है। ये क्रिया और पदार्थ प्रकृति का स्वरूप हैं, हमारा स्वरूप नहीं है। हमारा स्वरूप क्रिया और पदार्थ से रहित ‘अव्यक्त’ है। जैसे हम मकान में बैठे हुए हैं तो माकन अलग है, हम अलग हैं। इसलिये हम मकान को छोड़कर चले जाते हैं। ऐसे ही हम शरीर में बैठे हुए हैं। शरीर यहीं पड़ा रहता है, हम चले जाते हैं। मकान पीछे रहता है, हम अलग हो जाते हैं तो वास्तव में हम पहले से ही उससे अलग हैं। वास्तव में हम शरीर में रहते नहीं हैं, प्रत्युत रहना मान लेते हैं। इसलिये भगवान् ने कहा है- ‘अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्’

‘अविनाशी तो उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त हैं।’ तात्पर्य है कि स्वरूप सर्वव्यापी है, एक शरीर में सीमित नहीं है- ‘नित्यः सर्वभगतः’|जब तक वह शरीर के साथ अपना सम्बन्ध मानता है, तब तक वह साधक है। शरीर का सम्बन्ध सर्वथा छूटने पर वह सिद्ध हो जाता है।

शास्त्र में आता है कि देव होकर देव का भजन करना चाहिये- ‘देवो भूत्वा येजेद्देवम्’। इसलिये अव्यक्त होकर ही अव्यक्त परमात्मा का भजन करना चाहिये। शरीर तो क्षण-प्रतिक्षण बदलता है, पर साधक क्षण-प्रतिक्षण बदलने वाला साधक थोड़े ही है! क्षण-प्रतिक्षण बदलने वाला मुक्त? नित्य कैसे होगा? नित्य कैसे होगा? स्वरूप का विनाश कोई कर सकता ही नहीं- ‘विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति’ पर शरीर नष्ट हुए बिना रहता ही नहीं। जो अविनाशी होता है, वही मुक्त होता है। विनाशी मुक्त कैसे होगा? बन्धन का वहम (मोह) मिट जाय-इसको मुक्ति कहते हैं। इसलिये एक बार मोह मिटने पर पुनः मोह नहीं होता- ‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्’।[2] कारण कि मूल में मोह है नहीं। जो वास्तव में है नहीं, वही मिटता है। जो है, वह मिटता ही नहीं। सत् का अभाव नहीं होता और जिसका अभाव होता है, वह सत् नहीं होता, प्रत्युत असत् होता है-

 
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।

शरीर तो भोगायतन है। जैसे रसोईघर भोजन करने का स्थान है, ऐसे ही शरीर सुख-दुःख भोगने का स्थान है। सुख-दुःख भोगने वाला शरीर नहीं होता। भोगने का स्थान और होता है, भोगने वाला और होता है। शरीर तो ऊपर का चोला है। हम लाल, काला, सफेद आदि कैसा ही कपड़ा पहनें, वह स्वरूप थोड़े ही होता है! ऐसे ही स्त्री-पुरुष ऊपर का चोला है। स्वरूप न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक है। परमात्मा, प्रकृति और जीव-ये तीनों ही अलिंग हैं।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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