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मेरे तो गिरधर गोपाल
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सन्तों की वाणी में एक बड़ी विचित्र बात आयी है कि भगवान् ने संसार को मनुष्य के लिये बनाया और मनुष्य को अपने लिये बनाया। तात्पर्य है कि मनुष्य मेरी भक्ति करेगा तो संसार की सब वस्तुएँ उसको दूँगा! उसको किसी बात की कमी रहेगी ही नहीं! सदा के लिये कमी मिट जायगी! पर वह भक्ति न करके अभिमान करने लग गया। अभिमान भगवान को सुहाता नहीं-

ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च ।

‘ईश्वर का भी अभिमान से द्वेषभाव है और दैन्य से प्रियभाव है।’

सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ।
संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना।
ताते करहिं कृपानिधि दूरी। सेवक पर ममता अति भूरी।

भगवान् अभिमान को दूर करते हैं, पर मनुष्य फिर अभिमान कर लेता है! अभिमान करते-करते उम्र बीत जाती है! इसलिये हरदम ‘हे नाथ! हे मेरे नाथ!’ पुकारते रहो और भीतर से इस बात का खयाल रखो कि जो कुछ विशेषता आयी है, भगवान् से आयी है। यह अपने घर की नहीं है। ऐसा नहीं मानोगे तो बड़ी दुर्दशा होगी!

यह मानव जन्म भगवान् का ही दिया हुआ है। भगवान् ने मनुष्य को तीन शक्तियाँ दी हैं- करने की शक्ति, जानने की शक्ति और मानने की शक्ति। करने की शक्ति दूसरों का हित करने के लिये दी है, जानने की शक्ति अपने-आपको जानने के लिये दी है और मानने की शक्ति भगवान् को मानने के लिये दी है। परन्तु गलती तब होती है, जब मनुष्य इन तीनों शक्तियों को अपने लिये लगा देता है। इसीलिये वह दुःख पा रहा है। बल, बुद्धि, योग्यता आदि अपने दीखते ही अभिमान आता है। मैं ब्राह्मण हूँ- ऐसा मानने पर ब्राह्मणपने का अभिमान आ जाता है। मैं धनवान् हूँ- ऐसा मानने पर धन का अभिमान आ जाता है। मैं विद्वान् हूँ- ऐसा मानने पर विद्या का अभिमान आ जाता है। जहाँ मैं पन का आरोप किया, वहीं अभिमान आ जाता है। इसलिये भीतर से हरदम भगवान को पुकारते रहो। अपने में योग्यता प्रत्यक्ष दीखती हैं, इसलिये अभिमान से बचना बहुत कठिन होता है। मनुष्य को प्रत्यक्ष दीखता है कि मैं अधिक पढ़ा-लिखा हूँ, मैं गीता जानने वाला हूँ, मैं कीर्तन करने वाला हूँ, इसलिये वह फँस जाता है। अगर यह दीखने लग जाय कि यह सब केवल भगवान् की कृपा से ही हो रहा है तो निहाल हो जाय! जिनको चेत न हो, उन पर दया आनी चाहिये। वे भी चेतेंगे, पर देरी से!

नारद जी महाराज भगवान् के भक्त थे, पर उनको भी अभिमान हो गया। इतना अभिमान हो गया कि भगवान् को ही शाप दे दिया-

भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा।
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप सम एहा।
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी।
मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी। नारि बिरहँ तुम्ह होब दुखारी।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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