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मेरे तो गिरधर गोपाल
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भगवान् के विरह से गोपियों को जो ताप (दुःख) हुआ, वह दुःसह और तीव्र था- ‘दुःसहप्रेष्ठ विरहतीव्रताप।’ यह ताप संसार के ताप से अत्यन्त विलक्षण है। सांसारिक ताप में तो दुःख-ही-दुःख होता है, पर विरह के ताप में आनन्द-ही-आनन्द होता है। जैसे मिर्ची खाने से मुख में जलन होती है, आँखों में पानी आता है, फिर भी मनुष्य उसको खाना छोड़ता नहीं; क्योंकि उसको मिर्ची खाने में एक रस मिलता है। ऐसे ही प्रेमी भक्त को विरह के तीव्र ताप में उससे भी अत्यन्त विलक्षण एक रस मिलता है। इसीलिये चैतन्य महाप्रभु-जैसे महापुरुष ने भी विरह को ही सर्वश्रेष्ठ माना है। सांसारिक ताप तो पापों के सम्बन्ध से होता है, पर विरह का ताप भगवत्प्रेम के सम्बन्ध से होता है। इसलिये विरह के ताम में भगवान् साथ मानसिक सम्बन्ध रहने से आनन्द का अनुभव होता है-‘ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेषनिर्वृत्या’। जैसे प्यास वास्तव में जल से अलग नहीं है, ऐसे ही विरह भी वास्तव में मिलन से अलग नहीं है। जल का सम्बन्ध रहने से ही प्यास लगती है। प्यास में जल की स्मृति रहती है। अतः प्यास जलरूप ही हुई। इसी तरह विरह भी मिलन रूप ही है। विरह और मिलन-दोनों एक ही प्रेम की दो अवस्थाएँ हैं। संसार के सम्बन्ध में सुख भी दुःख रूप है और दुःख भी दुःख रूप है, पर भगवान् के सम्बन्ध में दुःख (विरह) भी सुख रूप है और सुख (मिलन) भी सुख रूप (आनन्द रूप) है। कारण कि सांसारिक सुख-दुख (अनुकूलता-प्रतिकूलता) तो गुणों के संग से होते हैं, पर भगवान् के सम्बन्ध संग से होने वाला दुःख (विरह) सांसारिक सुख से भी बहुत अधिक आनन्द देने वाला होता है! सांसारिक दुःख में अभाव रूप संसार का सम्बन्ध है, पर विरह के दुःख में भावरूप भगवान् का सम्बन्ध है।

सांसारिक दुःख में कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं और कर्ता की स्वतन्त्र सत्ता रह जाती है; परन्तु विरह के दुःख में कर्मों का कारण (गुणों का संग) ही नष्ट हो जाता है और कर्ता की स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत केवल परमात्मा की सत्ता रहती है। सांसारिक दुःख से जन्म-मरणरूप बन्धन नष्ट नहीं होता, पर विरह के दुःख से यह बन्धन सर्वथा नष्ट हो जाता है-‘प्रक्षीणबन्धनाः।’ इसलिये श्रीकृष्ण के विरह के तीव्र ताप से गोपियों का गुणमय शरीर छूट गया। इसके साथ मन-ही-मन श्रीकृष्ण का मिलन होने से से गोपियों को ब्रह्मलोक के सुख से भी विलक्षण सुख का अनुभव हुआ। कारण कि ब्रह्मलोक तक सभी लोक पुनरावर्ती होने से बन्धन कारक हैं- ‘आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोअर्जुन’।अतः ब्रह्मलोक का सुख भी प्राकृत है, जबकि गोपियों को मिलने वाला ध्यान जनित सुख प्रकृति से अतीत है। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान् के विरह के दुःख से और ध्यानजनित मिलन के सुख से गोपियों के पाप-पुण्य ही नष्ट नहीं हुए, प्रत्युत जन्म-मरण का कारण जो गुणों काक संग है, वह भी नष्ट हो गया! सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण- तीनों गुणों का संग मिटने से उनका गुणमय शरीर भी छूट गया और वे भगवान् के पास पहुँचीं- ‘जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः।’ कारण कि सत्व, रज और तम-तीनों ही गुण जीव को शरीर में बाँधने वाले हैं।इन गुणों का संग ही ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेने का कारण है ‘कारणं गुणसंगोअस्य सदसद्योनिजन्मसु’।गुणसंग नष्ट होने के कारण गोपियाँ किसी ऊँची या नीची योनि में नहीं गयीं, प्रत्युत सीधे भगवान् को ही प्राप्त हो गयीं।

तात्पर्य है कि जिनसे कर्मबन्धन होता है, ऐसे शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों के फलों से गोपियाँ मुक्त हो गयीं- ‘शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्य से कर्मबन्धनैः’।जिस बन्धन के रहते हुए नरकों का दुःख भोगा जाता है और जिस बन्धन के रहते हुए स्वर्ग, ब्रह्मलोक आदि का सुख भोगा जाता है, गोपियों का वह बन्धन (गुणों का संग) सर्वथा नष्ट हो गया। कारण कि बन्धन पाप-पुण्य से नहीं होता, प्रत्युत गुणों के संग से होता है।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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