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मेरे तो गिरधर गोपाल
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इसलिये क्रिया करने में दो आदमी भी बराबर नहीं होते, पर कुछ न करने में लाखों-करोड़ों आदमी भी एक हो जाते हैं। कोई विद्वान हो या मूर्ख हो, धनी हो या निर्धन हो, रोगी हो या नीरोग हो, निर्बल हो या बलवान् हो, योग्य हो या अयोग्य हो, कुछ न करने में सब एक हो जाते हैं, सबकी स्थिति परमात्मा में हो जाती है। तात्पर्य है कि अगर कुछ भी चिन्तन करेंगे तो संसार में स्थिति होगी और कुछ भी चिन्तन नहीं करेंगे तो परमात्मा में स्थिति होगी। वास्तव में हमारी स्थिति स्वतः परमात्मा में ही है, पर चिन्तन करने से इसका भान नहीं होता। इसलिये गीता में भगवान कहते हैं-

शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।

‘धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा संसार से धीरे-धीरे उपराम हो जाय और मन (बुद्धि)-को परमात्मस्वरूप में सम्यक् प्रकार से स्थापन करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे।’

तात्पर्य है कि सात्त्विक बुद्धि और सात्त्विक धृति के द्वारा क्रिया और पदार्थ रूप संसार से धीरे-धीरे उपराम हो जाय। जल्दबाजी न करे; क्योंकि जल्दबाजी करने से साधन बढ़िया नहीं होता। एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा के सिवाय कुछ भी नहीं है- ऐसा निश्चय करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे। परमात्मा स्वतः-स्वाभाविक सद्घन, चिद्घन और आनन्दघन हैं। ‘घन’ का अर्थ होता है- ठोस। जैसे, पत्थर या काँच ठोस होता है, इसलिये उसमें सुई नहीं चुभती। परन्तु परमात्मा पत्थर या काँच से भी ज्यादा ठोस हैं। कारण कि पत्थर या काँच में तो अग्नि प्रविष्ट हो जाती है, पर परमात्मा में कोई भी वस्तु प्रविष्ट नहीं हो सकती। ऐसे सर्वथा ठोस परमात्मा का साधक चिन्तन करता है तो उलटे उनसे दूर होता है! इसलिये वह जहाँ है, वहीं (निद्रा-आलस्य छोड़कर) बाहर-भीतर से चुप, शान्त रहने का स्वभाव बना ले। यह बहुत सुगम और बहुत बढ़िया साधन है। इससे बहुत शान्ति मिलेगी और सब पाप-ताप नष्ट हो जायँगे।

उपराम होने का तात्पर्य है कि राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि द्वन्द न हों। जैसे रास्ते में चल रहे हैं तो कहीं पत्थर पड़ा है, कहीं लकड़ी पड़ी है, कहीं कागज पड़ा है, पर अपना उससे कोई मतलब नहीं होता, ऐसे ही किसी भी क्रिया और पदार्थ से अपना कोई मतलब नहीं रहे- ‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’।उनसे तटस्थ रहे। तटस्थ रहना भी एक विद्या है। साधक तटस्थ रहते हुए सब काम करे तो वह संसार से असंग हो जाता है। संसार में लाभ हो, हानि हो, आदर हो, निरादर हो, सुख हो, दुःख हो, प्रशंसा हो, निन्दा हो, उसमें तटस्थ रहे तो परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। अगर वह उसमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख कर लेगा तो भोग होगा, योग नहीं। भोगी का कल्याण नहीं होता। इसलिये तुलसीदास जी महाराज ने कहा है-

तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार।
राग न रोष न दोष दुख, दास भए भव पार।

गीता में आया है-

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।

‘जो योग (समता)- में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगी के लिये कर्तव्य-कर्म करना कारण कहा गया है और उसी योगारूढ मनुष्य का शम (शान्ति) परमात्मप्राप्ति में कारण कहा गया है।’
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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