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मेरे तो गिरधर गोपाल
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अतः भागवत के उपर्युक्त श्लोकों में आये ‘धुताशुभाः’ पद का अर्थ हुआ कि रजोगुण तथा तमोगुण नष्ट हो गये और ‘क्षीणमंगलाः’ पद का अर्थ हुआ कि सत्वगुण नष्ट हो गया।सत्वगुण प्रकाशक और अनामय है, इसलिये उसको यहाँ ‘मंगल’ नाम से कहा गया है।परन्तु प्रकाशक और अनामय होने पर भी वह सुख और ज्ञान के संग से बाँधने वाला होता है-‘सुखसंगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ’ (गीता 14/6)। ध्यान में आये हुए श्रीकृष्ण मन-ही-मन आलिंगन करने से गोपियों को जो विलक्षण सुख हुआ, उस सुख से सत्वगुण से होने वाले सुख संग और ज्ञान संग का भी सुख मिट गया अर्थात् सात्विक सुख और सात्विक ज्ञान की भी आसक्ति मिट गयी! इस प्रकार जन्म-मरण का कारण जो तीनों गुणों का संग है, वह सर्वथा नहीं रहा, जिसके न रहने से गोपियों का गुणमय शरीर भी नहीं रहा।

तत्त्व ज्ञान शरीर के शरीर के सम्बन्ध (अहंता-ममता)-का नाश तो करता है, पर शरीर का नाश नहीं करता। कारण कि जीवमुक्त होने पर संचित और क्रियमाण कर्म तो क्षीण हो जाते हैं, पर प्रारब्ध क्षीण नहीं होता। इसलिये जीवन्मुक्ति, तत्त्व ज्ञान होने पर भी जब तक प्रारब्ध का वेग रहता है, तब तक शरीर भी रहता है। अगर शरीर तत्काल नष्ट हो जाय तो फिर ज्ञान का उपदेश कौन करेगा? ब्रह्मविद्या की परम्परा कैसे चलेगी? परन्तु गोपियों का विरहजन्य ताप इतना विलक्षण था कि उनका गुणसंग तो रहा ही नहीं, गुणमय शरीर भी नष्ट हो गया! उनके संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध-तीनों एक साथ तत्काल (सद्यः) और सर्वथा क्षीण (प्रक्षीण) हो गये-‘सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः।’ इससे सिद्ध होता है कि ‘वियोग’ में बन्धन जल्दी छूटता है, पर ‘योग’ में देरी लगती है। वियोग में योग से भी विलक्षण आनन्द होता है।विरह का तीव्र ताप जन्म-मरण के मूल कारण गुणसंग (मूल अज्ञान)-को ही जला देता है। जो गोपियाँ वंशीवादन सुनकर भगवान् के पास चली गयी थीं, उनका वह अनादि काल काक गुणसंग नष्ट नहीं हुआ; क्योंकि उनको वियोगजन्य तीव्र ताप नहीं हुआ। परन्तु जिनको वियोगजन्य तीव्र ताप हुआ, उनके लिये अनादिकाल के गुणसंगहित सम्पूर्ण जगत् की निवृत्ति हो गयी और वे सबसे पहले भगवान् से जा मिलीं। विरह के तीव्र ताप से उनका शरीर छूट गया और ध्यान जनित आनन्द से वे भगवान् से अभिन्न हो गयीं। वे भगवान् से बाहर न मिलकर भीतर से ही मिल गयीं, जो कि वास्तविक (सर्वथा) मिलन है।

यद्यपि श्रीकृष्ण के प्रति उन गोपियों की जारबुद्धि थी अर्थात् उनकी दृष्टि परमपति भगवान् के शरीर की सुन्दरता की तरफ थी तो भी वे भगवान् को प्राप्त हो गयीं- ‘तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि संगताः’। जारबुद्धि होने पर भी गोपियों में अपने सुख की इच्छा (काम) लेशमात्र भी नहीं है। अगर उनमें अपने सुख की इच्छा होती तो वे अपने शरीर को सजाकर भगवान् के पास जातीं। यहाँ ‘जारबुद्धि’ शब्द इसलिये दिया है कि गोपियों का विवाह तो दूसरे के साथ हुआ था, पर उनका प्रेम श्रीकृष्ण में था। उनका गुणमय शरीर ही नहीं रहा, फिर भोगबुद्धि कैसे रहेगी? भोगबुद्धि के रहने का स्थान ही नहीं रहा, केवल परमात्मा ही रहे। गोपियों में यह विलक्षणता भगवान् की दिव्याति दिव्य वस्तुशक्ति (स्वरूप शक्ति)-से आयी है, अपनी भावशक्ति से नहीं। भगवान् की वस्तु शक्ति से गोपियों की जारबुद्धि नष्ट हो गयी। जैसे अग्नि से सम्बन्ध होने पर सभी वस्तुएँ (अग्नि की वस्तुशक्ति से) अग्निरूप ही हो जाती हैं, ऐसे ही भक्त भगवान् के साथ, काम, द्वेष, भय, स्नेह आदि किसी भी भाव से सम्बन्ध जोडे़, वह (भगवान् की वस्तुशक्ति से) भगवत्स्वरूप ही हो जाता है।इसमें भक्त का भाव, उसका प्रयास काम नहीं करता, प्रत्युत भगवान् की दिव्यातिदिव्य स्वरूप शक्ति काम करती है। इसका कारण यह है कि भगवान् जीव के कल्याण के लिये ही प्रकट होते हैं-‘नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप’
गीता में भगवान् के चार प्रकार के भक्त बताये गये हैं- अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी (प्रेमी)।यद्यपि अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु का गुणों के साथ सम्बन्ध रहता है, तथापि मुख्य सम्बन्ध भगवान् के साथ रहने के कारण वे भी तीनों गुणों से रहित हो जाते हैं। इसलिये जिस-किसी उपाय से जीव का भगवान् के साथ सम्बन्ध जुड़ना चाहिये-‘तस्मात् केनाप्युपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत्’ क्योंकि जीव भगवान् का ही अंश है। भगवान् का सम्बन्ध मुख्य रहने से भोगों का सम्बन्ध मिट जाता है, पर भोगों का सम्बन्ध मुख्य रहने से भगवान् का सम्बन्ध छिप जाता है, मिटता नहीं। कारण कि जीव का भगवान् के साथ नित्ययोग है।

भगवान् श्रीकृष्ण का एक नाम आता है-‘चोरजारशिखामणिः।’ इसका अर्थ है कि भगवान् के समान चोर और जार दूसरा कोई है ही नहीं, हो सकता ही नहीं। दूसरे चोर और जार तो केवल अपना ही सुख चाहते हैं, पर भगवान् केवल दूसरे के सुख के लिये चोर और जार की लीला करते हैं। उनकी ये दोनों ही लीलाएँ दिव्य, विलक्षण, अलौकिक हैं- ‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्’ (गीता 4/9)।संसारी चोर तो केवल वस्तुओं की ही चोरी करते हैं, पर भगवान् वस्तुओं के साथ-साथ उन वस्तुओं के राग, आसक्ति, प्रियता आदि को भी चुरा लेते हैं। भगवान् ने गोपियों के मक्खन साथ-साथ उनके रागरूप बन्धन को भी खा लिया था। वे जार बनते हैं तो सुख के भोक्ता के साथ-साथ सुखासक्ति, सुखबुद्धि का भी हरण कर लेते हैं, जिससे सम्बन्धजन्य आकर्षण (काम) न रहकर केवल भगवान् का आकर्षण (विशुद्ध प्रेम) रह जाता है, अन्य की सत्ता न रहकर केवल भगवान् की सत्ता रह जाती है। तात्पर्य है कि भगवान् अपने कर्मों में किसी को चोर और जार रहने ही नहीं देते, उनके चोर-जारपने को ही हर लेते हैं। ‘कनक’ (धन) और ‘कामिनी’ (स्त्री)- की आसक्ति से ही मनुष्य ‘चोर’ और ‘जार’ होता है। अतः कनक-कामिनी की आसक्ति का सर्वथा अभाव करने वाले होने से भगवान् चोर और जार के भी शिखामणि हैं।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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