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मेरे तो गिरधर गोपाल
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अनन्तरस को प्रवाहित करने वाली प्रेम रूपी नदी के दो तट हैं- नित्यमिलन और नित्यविरह। नित्यमिलन से प्रेम में चेतना आती है, विशेष विलक्षणता आती है, प्रेम का उछाल आता है और नित्यविरह से प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है अर्थात् अपने में प्रेम की कमी मालूम देने पर ‘प्रेम और बूढ़े, और बूढ़े’ यह उत्कण्ठा होती है।

अरबरात मिलिबे को निसिदिन,
मिलेइ रहत मनु कबहुँ मिलै ना।

जैसे धनी आदमी में तीन चीजें रहती हैं-1. धन और 2. धन का नशा अर्थात् अभिमान और 3. धन बढ़ने की इच्छा। ऐसे ही प्रेमी में तीन चीजें रहती हैं- 1. प्रेम 2. प्रेम की मादकता, मस्ती और 3. प्रेम बढ़ने की इच्छा। धनी आदमी में जो ‘धन और बढ़े, और बढ़े’- यह इच्छा रहती है, वह लोभरूपी दोष के बढ़ने से होती है। परन्तु प्रेमी में जो ‘प्रेम और बूढ़े, और बढ़े’- यह इच्छा रहती है, वह अहंता-ममता रूपी दोषों के मिटने से होती है।अहंता-ममता रूपी दोषों के मिटने के बाद जहाँ अहंता (मैं-पन) थी, वहाँ ‘नित्यमिलन’ प्रकट होता है और जहाँ ममता (मेरा-पन) थी, वहाँ ‘नित्यविरह’ प्रकट होता है वास्तव में नित्यमिलन (नित्ययोग) और नित्यविरह-दोनों जीव में सदा से विद्यमान हैं, पर भगवान् से विमुख होकर संसार के सम्मुख हो जाने से ‘नित्यमिलन’ ने अहंता का रूप धारण कर लिया और ‘नित्यविरह’ ने ममता का रूप धारण कर लिया। अहंता और ममता के पैदा होने से प्रेम दब गया और संसार की आसक्ति या मोह उत्पन्न हो गया। तात्पर्य यह हुआ कि दोषों के रहने से संसार की आसक्ति बढ़ती है और दोषों के मिटने से शान्ति मिलती है एवं शान्ति में सन्तोष न करने से प्रेम बढ़ता है। संसार में प्रियता काम क्रोधादि दोषों से होती है, पर भगवान् में प्रियता निर्दोषता से होती है। जब तक अपने में थोड़ा भी संसार का आकर्षण है, तब तक प्रेम प्राप्त नहीं हुआ है; क्योंकि प्रेम की जगह कामने ले ली! प्रेम प्राप्त होने पर संसार में किंचिन्मात्र भी आकर्षण नहीं रहता।

प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान तभी होता है, जब उसमें पहली अवस्था का क्षय और दूसरी अवस्था का उदय होता है। पहली अवस्था का त्याग ‘नित्यविरह’ और दूसरी अवस्था की प्राप्ति ‘नित्यमिलन’ है। वास्तव में देखा जाय तो प्रेम में क्षय या उदय, त्याग या प्राप्ति है ही नहीं, प्रत्युत प्रेम के नित्य-निरन्तर ज्यों-के-त्यों रहते हुए ही प्रतिक्षण वर्धमान होने से उसमें क्षय या उदय की प्रतीति होती है।

प्रेम में प्रेमी को अपने में एक कमी का भान होता है, जिससे उसमें ‘प्रेम और बढ़े, और बढे़’ यह लालसा (भूख) होती है। अगर सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो ‘और बढ़े, और बढ़े’ इस लालसा में प्रेम की प्राप्ति भी है और कमी भी! कमी नहीं है, फिर भी कमी दीखती है। इसलिये प्रेम को अनिर्वचनीय कहा गया है-

अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम्। मूकास्वादनवत्।

आनन्द भी आये और कमी भी दीखे-यह प्रेम की अनिर्वचनीयता है।जो पूर्णता को प्राप्त हो गये हैं, जिनके लिये कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहा, ऐसे महापुरुषों में भी प्रेम की भूख रहती है। उनका भगवान् की तरफ स्वतः स्वाभाविक खिंचाव होता है। इसलिये भगवान् ‘आत्मारामगणाकर्षी’ कहलाते हैं। सनकादि मुनि ‘ब्रह्मानंद सदा लयलीना’ होते हुए भी भगवल्लीला कथा सुनते रहते हैं-

आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं।।
जब वे वैकुण्ठ धाम में गये, तब वहाँ भगवान् के चरणकमलों की दिव्य गन्ध से उनका स्थिर चित्त भी चंचल हो उठा-

तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्द-
किज्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायुः।
अन्तर्गतः स्वविवरेण चकार तेषां
संक्षोभमक्षरजुषामपि चित्ततन्वोः।।

‘प्रणाम करने पर उन कमलनेत्र भगवान् के चरण-कमल के पराग से मिली हुई तुलसी-मंजरी की वायु ने उनके नासिका-छिद्रों में प्रवेश करके उन अक्षर परमात्मा में नित्य स्थित रहने वाले ज्ञानी महात्माओं के भी चित्त और शरीर को क्षुब्ध कर दिया।’
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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