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मेरे तो गिरधर गोपाल
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कौशल्या माता को राम, लक्ष्मण और सीता- तीनों अपने सामने दीखते हैं तो वे सुमित्रा से पूछतीं हैं कि यह बताओ, अगर राम जी वन को चले गये हैं तो वे मेरे को दीखते क्यों हैं? और अगर वे वन को नहीं गये हैं तो मेरे चित्त में व्याकुलता क्यों है? कौशल्या जी की ये दो अवस्थाएँ हैं। इन दोनों अवस्थाओं में प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है।

भक्ति की अभिन्नता में अपनी तरफ देखते हैं तो भेद होता है कि मैं भगवान् का हूँ, भगवान् मेरे हैं। भगवान् की तरफ देखते हैं तो अभेद होता है कि एक भगवान् के सिवाय कुछ नहीं है। यह अभेद भक्ति में ही है, ज्ञानयोग में नहीं। भक्ति की अभिन्नता में भक्त भगवान् से भिन्न कभी होता ही नहीं। वह न संयोग (मिलन)-में भिन्न होता है, न वियोग (विरह)- में भिन्न होता है। ज्ञान में अपने स्वरूप का ज्ञान होता है, जो परमात्मा का अंश है- ‘ममैवांशो जीवलोके’।

ज्ञानयोग में साधक को एक तत्त्व से अभेद का अनुभव हो जाता है। परन्तु जिसके भीतर भक्ति के संस्कार होते हैं, उसको ज्ञान के अभेद में सन्तोष नहीं होता। अतः उसको भक्ति की प्राप्ति होती है। भक्ति में फिर भेद और अभेद होते रहते हैं, जिसको अभिन्नता कहते हैं। परन्तु ज्ञानयोग में केवल अभेद होता है। ज्ञानयोग में परमात्मा का अंश अपने स्वरूप में स्थित हो गया, अब उसमें भेद कैसे हो? उसमें अखण्ड आनन्द, अपार आनन्द, असीम आनन्द, एक आनन्द-ही-आनन्द रहता है। परन्तु भक्तियोग में अभिन्नता होती है। दो से एक होते हैं तो अभेद होता है और एक से दो होते हैं तो अभिन्नता होती है। अभेद में जीव की ब्रह्म के साथ एकता हो जाती है।

एक रूप से जो ब्रह्म है, वही अनेक रूप से जीव है। अभिन्नता में ईश्वर के साथ एकता होती है। अंश-अंश की एकता अभेद है और अंश-अंशी की एकता अभिन्नता है। अंश-अंशी की एकता में प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम होता है। प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम में विरह होने पर भक्त मिलन की इच्छा करता है और मिलन होने पर चुप, शान्त हो जाता है! इस अवस्था का वर्णन भागवत में इस प्रकार किया गया है-

वाग्गद्भदा द्रवते यस्य चितं-
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च।
विलज्ज उद्भायति नृत्यते च
मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति।।

‘जिसकी वाणी मेरे नाम, गुण और लीला का वर्णन करती-करती गद्गद हो जाती है, जिसका चित्त मेरे रूप, गुण, प्रभाव और लीलाओं को याद करते-करते द्रवित हो जाता है, जो बारंबार रोता रहता है, कभी हँसने लग जाता है, कभी लज्जा छोड़कर ऊँचे स्वर से गाने लगता है, तो कभी नाचने लग जाता है, ऐसा मेरा भक्त सारे संसार को पवित्र कर देता है।’
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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