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मेरे तो गिरधर गोपाल
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अब इन तीन बातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें। पहली बात है- मेरा कुछ भी नहीं है। इसको स्वीकार करने के लिये साधक को इस बात का मनन करना चाहिये कि हम अपने साथ क्या लाये हैं और अपने साथ क्या ले जायँगे? मनन करने से साधक को पता लगेगा कि हम अपने साथ कुछ लाये नहीं और अपने साथ कुछ ले जा सकते नहीं। तात्पर्य यह निकला कि जो वस्तु मिलने और बिछुड़ने वाली है, वह हमारी नहीं हो सकती। जो वस्तु उत्पन्न और नष्ट होने वाली है, वह हमारी नहीं हो सकती। जो वस्तु आने और जाने वाली है, वह हमारी नहीं हो सकती। कारण कि स्वयं मिलने-बिछुड़ने वाला, उत्पन्न-नष्ट होने वाला, आने-जाने वाला नहीं है। अतः सिद्ध हुआ कि अनन्त ब्रह्माण्डो में तिल-जितनी वस्तु भी हमारी नहीं है।

दूसरी बात है- मेरे को कुछ नहीं चाहिये। साधक को विचार करना चाहिये कि जब संसार में कोई वस्तु मेरी है ही नहीं, तो फिर मेरे को क्या चाहिये? शरीर को अपना मानने से ही चाह पैदा होती है कि हमें रोटी चाहिये, जल चाहिये, कपड़ा चाहिये, मकान चाहिये आदि-आदि। साधक इस बात पर विचार करे कि शरीर से अलग होकर मेरे को क्या चाहिये? तात्पर्य है कि जब साधक इस सत्य को स्वीकार कर लेता है कि मेरा कुछ भी नहीं है, तब वह इस सत्य को स्वीकार करने में समर्थ हो जाता है कि मेरे को कुछ नहीं चाहिये।

तीसरी बात है- मैं कुछ नहीं हूँ। शरीर और संसार को तो सब देखते हैं, पर ‘मैं’ को किसी ने नहीं देखा है। शरीर की प्रतीति होती है और स्वयं का अनुभव होता है, पर ‘मैं’ की न तो प्रतीति होती है और न अनुभव ही होता है। ‘मैं’ का भान होता है। जब साधक इस सत्य को स्वीकार कर लेता है कि मेरे को कुछ नहीं चाहिये, तब वह इस सत्य को स्वीकार करने में समर्थ हो जाता है कि ‘मैं’ कुछ नहीं है। जिसमें संसार की ममता और परमात्मा की जिज्ञासा है, उसको ‘मैं’ कह देते हैं, पर वास्तव में ‘मैं’ कुछ नहीं है। सुषुप्ति में स्वयं तो रहता है, पर ‘मैं’ नहीं रहता। सुषुप्ति में स्वयं के भाव का और ‘मैं’ के अभाव का अनुभव सबको होता है।

मेरा कुछ नहीं है और मेरे को कुछ नहीं चाहिये- इन दो बातों की सिद्धि होते ही ‘मैं’ सत्ता मात्र में अर्थात् ‘है’ में विलीन हो जाता है। तात्पर्य है कि चेतन-अंश चेतन-तत्त्व में और जड़-अंश जड़ में विलीन हो जाता है। फिर एक सत्ता मात्र के सिवाय कुछ नहीं रहता।

प्रकृति का स्वरूप है- पदार्थ और क्रिया। पदार्थ की उत्पत्ति और विनाश होता है। क्रिया का आरम्भ और अन्त होता है। शरीरादि पदार्थों का आश्रय ‘पराश्रय’ है और क्रिया का आश्रय ‘परिश्रम’ है। परमात्मप्राप्ति के लिये क्रिया और पदार्थ की बिलकुल आवश्यकता नहीं है। संसार में तो ‘करना’ मुख्य है, पर परमात्मा में ‘न करना’ ही मुख्य है। शरीर और संसार की सहायता से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। जो तत्त्व सब जगह परिपूर्ण है, उसकी प्राप्ति ‘करने’ से कैसे होगी? करने से तो उलटे वह दूर होगा!

शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, योग्यता, बल आदि सब प्रकृति के हैं। इनका आश्रय लेना प्रकृति का आश्रय है। प्रकृति का आश्रय रखने पर परमात्मा की प्राप्ति कैसे होगी? शरीर प्रकृति का होने से हमारा नहीं है और हमारे लिये भी नहीं है। इसलिये शरीर के द्वारा जो कुछ भी किया जाय, वह केवल संसार के लिये ही किया जाना चाहिये।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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