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मेरे तो गिरधर गोपाल
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पुरुष भोक्तापन में हेतु तो है, पर क्रिया में हेतु नहीं है। सभी भोग क्रियाजन्य होते हैं। जब पुरुष प्रकृति में स्थित होता है, तभी वह भोक्ता होता है- ‘पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुंक्ते प्रकृतिजान्गुणान्’।प्रकृति से अलग होने पर पुरुष भोक्ता नहीं होता। यह पुरुष की विलक्षणता है कि देह में स्थित होता हुआ भी वह देह से पर है अर्थात देह से असंग, अलिप्त, असम्बद्ध है- ‘देहेऽस्मिन्पुरुषः परः’।शरीर के साथ अपनी एकता मानने से ही वह कर्ता-भोक्ता बनता है, अन्यथा वह कर्ता-भोक्ता है ही नहीं- ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’।जैसे सूर्य सब को प्रकाशित करता है, पर वह किसी क्रिया का कर्ता नहीं बनता। सूर्य के प्रकाश में कोई वेद पढ़ता है तो सूर्य उस पुण्य का भागी नहीं होता और कोई शिकार करता है तो सूर्य उस पाप का भागी नहीं होता। ऐसे ही पुरुष शरीर के साथ सम्बन्ध न जोड़े तो वह पाप-पुण्य का भागी नहीं होता।

जीवात्मा की प्रकृति के साथ मानी हुई एकता है और परमात्मा के साथ स्वरूप से एकता है; क्योंकि यह परमात्मा का ही अंश है। शरीर के साथ सम्बन्ध जोड़ने से यह कर्ता-भोक्ता बनता है और जन्म-मरण में चला जाता है। अगर यह शरीर के साथ सम्बन्ध न जोड़े तो मुक्त हो जाता है। वास्तव में यह मुक्त ही है। यह स्वतः-स्वाभाविक सबमें परिपूर्ण होते हुए भी अपने को एक शरीर में स्थित मान लेता है और जन्म-मरण के चक्कर में पड़ जाता है। अगर यह अपने निर्विकल्प स्वरूप में स्थित रहे तो शरीर में रहता हुआ भी कर्ता-भोक्ता नहीं बनता। जीवात्मा में निर्लिप्तता स्वाभाविक है और लिप्तता कृत्रिम है। परन्तु निर्लिप्तता की तरफ उसकी दृष्टि नहीं है। यह मुक्त होता नहीं है, प्रत्युत मुक्त है, पर उस तरफ इसकी दृष्टि नहीं है। जैसे परमात्मा सबमें परिपूर्ण रहते हुए भी कर्ता-भोक्ता नहीं बनते, ऐसे ही सबमें परिपूर्ण रहते हुए भी जीवात्मा कर्ता-भोक्ता नहीं बनता। जीवात्मा का परमात्मा से साधर्म्य है- ‘मम साधर्म्यमागताः’।यह साधर्म्य स्वतःस्वाभाविक है।

उपर्युक्त बातों से यह सिद्ध हुआ कि हम अपने को जो संसारी आदमी मानते हैं कि हम संसार में तो हैं और परमात्मा को प्राप्त करेंगे, ऐसी बात नहीं है। हम परमात्मा को प्राप्त हैं, पर उधर ध्यान न होने से हम परमात्मा को अप्राप्त मानते हैं। मानी हुई बात मिट जाती है तो मुक्तपना स्वतः रह जाता है। तात्पर्य है कि गलत बात न मानें तो मुक्त होना स्वाभाविक है। बद्ध होना अस्वाभाविक है। परन्तु मनुष्यों ने भूल से मान लिया है कि बद्ध होना स्वाभाविक है और मुक्त होना अस्वाभाविक है, इसलिये मेहनत करेंगे, उद्योग करेंगे, तब मुक्त होंगे, अन्यथा बद्ध ही रहेंगे! मुक्ति स्वाभाविक है, तभी एक बार मुक्त होने पर फिर पुनः मोह नहीं होता- ‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्’।अगर मनुष्य वास्तव में मोहित (बद्ध) होता तो फिर सदा मोहित ही रहता। इसलिये वास्तव में मुक्त ही मुक्त होता है! अगर वह वास्तव में बद्ध होता तो फिर कभी मुक्त होता ही नहीं। परन्तु मुक्त होता हुआ भी वह अपने को बद्ध मान लेता है। यह माना हुआ बन्धन मिटने पर जो मुक्ति स्वतः-स्वाभाविक है, उसका अनुभव हो जाता है।

बद्धावस्था में भी जीव वास्तव में लिप्त नहीं है- ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’।बद्धावस्था में भी वह तटस्थ, अलग है, पर अलगाव का अनुभव न करके लिप्तता का अनुभव करता है। इसलिये बद्धपना माना हुआ है और मुक्तपना इसका स्वतः वास्तविक स्वरूप है। जो हमारा वास्तविक स्वरूप है, उसी को जानना है। उसको जानने पर फिर मोह नहीं होगा।

बन्धन आगन्तुक है, मुक्ति स्वतःसिद्ध है। हमने अस्वाभाविक को स्वाभाविक और स्वाभाविक को अस्वाभाविक मान लिया है, इसलिये बँधे हुए रहते हैं। वास्तव में जड़ और चेतन का सम्बन्ध होना असम्भव है। जैसे अन्धकार और प्रकाश आपस में नहीं मिल सकते, ऐसे ही जड़ और चेतन आपस में नहीं मिल सकते। परन्तु चेतन में यह शक्ति है कि वह जड़ को अपने साथ मिला हुआ मान लेता है। चेतन सत्य है, इसलिये वह जो मान्यता कर लेता है, वह भी सत्य की तरह हो जाती है। यह शक्ति जड़ में नहीं है। जड़ ने चेतन को अपना नहीं माना है, प्रत्युत चेतन ने ही जड़ को अपना मान है तभी वह बद्ध होता है। अगर यह जड़ को अपना न माने तो बनावटी बन्धन मिट जायगा और स्वाभाविक मुक्ति का अनुभव हो जायगा। इसलिये मुक्ति सहज है, स्वाभाविक है। बद्धपना बनावटी है, अस्वाभाविक है।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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