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मेरे तो गिरधर गोपाल
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शरीर से जप, ध्यान, पूजन, तीर्थ, व्रत आदि जो कुछ भी किया जाय, वह इस भाव से किया जाय कि दूसरों का हित हो। अपने लिये कुछ भी करना भोग है, योग नहीं। तात्पर्य हुआ कि शरीर संसार का अंश है, इसलिये शरीर से होने वाली प्रत्येक क्रिया संसार के लिये ही है, हमारे लिये नहीं। हमारे लिये केवल परमात्मा हैं; क्योंकि हम उन्हीं के अंश हैं। अतः पराश्रय और परिश्रम भोग है। जो पराश्रय को छोड़कर भगवदाश्रय को अपनाता है और परिश्रम को छोड़कर विश्राम को अपनाता है, वह योगी होता है। परन्तु जो पराश्रय और परिश्रम को अपनाता है, वह भोगी होता है।

पराश्रय और परिश्रम में सभी पराधीन हैं, पर भगवदाश्रय और विश्राम में सब-के-सब स्वतन्त्र हैं। पराश्रय और परिश्रम तो संसार के लिये हैं, पर भगवदाश्रय और विश्राम अपने लिये हैं। साधक को अपने में जितनी कमी दीखती है, उतना ही पराश्रय और परिश्रम है। भगवदाश्रय और विश्राम के आते ही मानव-जीवन पूर्ण हो जाता है। कारण कि एक भगवान् के सिवाय और कोई ऐसा नहीं है, जो सदा हमारे साथ रहे, कभी हमसे बिछुड़े नहीं। संसार की प्राप्ति के लिये क्रिया है और परमात्मा की प्राप्ति के लिये विश्राम है। क्रिया से शक्ति का ह्रास होता है और अक्रियता अर्थात् विश्राम से शक्ति का संचय होता है। इतना ही नहीं, सम्पूर्ण शक्तियाँ अक्रिय-तत्त्व से ही प्रकट होती हैं। मनुष्य दिन भर परिश्रम करके रात को सोता है तो निद्रा से उसकी थकावट मिट जाती है और पुनः कार्य करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। परन्तु निद्रा का सुख तामस होता है- ‘निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाह्रतम्’।अपने लिये विश्राम करना अर्थात् कुछ न करना भोग है, पर परमात्मा के लिये विश्राम करना साधन है; क्योंकि परमात्मा परम विश्राम-स्वरूप हैं। अतः विश्राम अपने लिये न होकर परमात्मा के लिये होना चाहिये।

नित्य परमात्मसत्ता में निरन्तर स्थित रहना ही परमात्मा के लिये विश्राम करना है। परमात्मा के लिये होने वाला विश्राम तामस नहीं होता, प्रत्युत सात्त्विक होकर गुणातीत हो जाता है। इसलिये साधक के लिये सबसे मूल्यवान् वस्तुएँ दो ही हैं- भगवदाश्रय और विश्राम। भगवदाश्रय और विश्राम से पारमार्थिक इच्छा पूरी हो जाती है और सांसारिक इच्छाएँ मिट जाती हैं। अगर साधक का भगवान पर विश्वास न हो, प्रत्युत अपने पर विश्वास हो तो वह स्वाश्रय को अपना सकता है। अगर साधक का न तो भगवान पर विश्वास हो, न अपने पर विश्वास हो तो वह धर्म का अर्थात् कर्तव्य का आश्रय अपना सकता है। मैं भगवान् का हूँ, भगवान् मेरे हैं- यह भगवान् का आश्रय है। मेरा कुछ नहीं है, मेरे को कुछ नहीं चाहिये- यह ‘स्व’ का आश्रय है। पदार्थ और क्रिया केवल दूसरों के हित के लिये है- यह धर्म का आश्रय है। भगवान् का आश्रय ‘भक्तियोग’ है। ‘स्व’ का आश्रय ‘ज्ञानयोग’ है। धर्म का आश्रय ‘कर्मयोग’ है। यद्यपि तीनों ही योग मार्गों से पदार्थों और क्रियारूप प्रकृति का आश्रय छूट जाता है और सत्ता मात्र में अपनी स्वतःसिद्ध स्थिति का अनुभव हो जाता है, तथापि इन तीनों में भगवान् का आश्रय सर्वश्रेष्ठ है; क्योंकि मूल में हम भगवान् के ही अंश हैं। भगवदाश्रय से मुक्ति के साथ-साथ भक्ति की भी प्राप्ति हो जाती है, जो मानव जीवन का चरम लक्ष्य है।

एक ‘है’ (सत्तामात्र)- के सिवाय और कुछ नहीं है- ऐसा जानने से मुक्ति हो जाती है और वह ‘है’ अपना है-ऐसा मानने से भक्ति हो जाती है। वास्तव में जो ‘है’ वही अपना हो सकता है। जो ‘नहीं’ है, वह अपना कैसे हो सकता है? अगर साधक असत् की सत्ता ही स्वीकार न करे और अपना कोई आग्रह न रखे तो भक्ति अपने-आप होती है।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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