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मेरे तो गिरधर गोपाल
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यहाँ शंका हो सकती है कि जिन गोपियों का गुणमय शरीर नहीं रहा, उनकी भगवान् के साथ रासलीला कैसे हुई? इसका समाधान है कि वास्तव में रासलीला गुणों से अतीत (निर्गुण) होने पर ही होती है। गुणों के रहते हुए भगवान् के साथ जो सम्बन्ध होता है, उसकी अपेक्षा गुणों से रहित होकर भगवान् के साथ होने वाला सम्बन्ध अत्यन्त विलक्षण है। दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि भाव भी वास्तव में गुणातीत (मुक्त) होने पर ही होते हैं।एक श्लोक आता है-

‘तत्त्वबोध से पहले का द्वैत तो मोह में डालता है, पर बोध हो जाने पर भक्ति के लिये स्वीकृत द्वैत अद्वैत से भी अधिक सुन्दर होता है।’

भगवान् को विलक्षण आनन्द देने वाला जो प्रेम है, वह गुणों में नहीं है, प्रत्युत निर्गुण में है। कारण कि गुणातीत भगवान् भी जिस प्रेम के लोभी हैं, वह प्रेम गुणमय कैसे हो सकता है? जैसे भगवान् का शरीर दिव्य है, गुणमय नहीं है, ऐसे ही उन गोपियों का शरीर भी दिव्य हो गया, गुणमय नहीं रहा। सगुण भगवान् भी सत्व-रज-तम-गुणों से युक्त नहीं हैं, प्रत्युत ऐश्वर्य, माधुर्य, सौन्दर्य, औदार्य आदि दिव्य गुणों से युक्त हैं। इसलिये सगुण भगवान् की भक्ति को निगुण (सत्वादि गुणों से रहित) बताया गया है; जैसे-‘मन्निकेतं तु निर्गुणम्’ ‘मत्सेवायां तु निर्गुणा’ आदि। भगवान् की भक्ति करने से मनुष्य गुणातीत हो जाता है।तात्पर्य यह है कि भगवान् से सम्बन्ध होने पर सत्व, रज और तमोगुण रहते ही नहीं। अतः रासलीला में जो शरीर थे, वे हमारे शरीर-जैसे गुणों वाले नहीं थे, प्रत्युत भगवान् के शरीर-जैसे तीनों गुणों से रहित अर्थात् दिव्यातिदिव्य थे। उस रासलीला में जितनी भी गोपियाँ गयी थीं, वे सब-की-सब भगवान् की इच्छा से दिव्य भावमय शरीर धारण करके ही गयी थीं। इसीलिये उन गोपियों के गुणमय शरीरों को उनके पतियों ने अपने पास (घर में ही) सोते हुए देखा-‘मन्यमानाः स्वपाश्र्वस्थान् स्वान् दारान् व्रजौकसः’।भगवान् अनन्त हैं, इसलिये उनका सब कुछ अनन्त है- ‘हरि अनंत हरिकथा अनंता’।इसलिये प्रेम में अनन्त रस है। अनन्तरस का तात्पर्य है कि प्रेम प्रतिक्षण वर्धामन है। प्रतिक्षण वर्धमान होने के लिये प्रेम में विरह और मिलन -दोनों का ही होना आवश्यक है। कारण कि विरह के बिना रस की वृद्धि नहीं होती और मिलन के बिना रस की अनुभूति नहीं होती, उसका अस्वादन नहीं होता। संसार में तो संयोग का रस भी नहीं रहता और वियोग का रस भी नहीं रहता; क्योंकि संसार का नित्यवियोग है। परन्तु मिलन (योग)- का रस भी नित्य रहता है और विरह (वियोग)-का रस भी नित्य रहता है; क्योंकि भगवान् का नित्ययोग है। संसार के नित्यवियोग के अन्तर्गत संयोग-वियोग होते हैं और भगवान् के नित्ययोग के अन्तर्गत मिलन-विहर होते हैं। जैसे, माता कौसल्या सुमित्रा से कहती हैं कि ‘हे सुमित्रे! यदि राम जी वन में चले गये हैं तो फिर मेरे को दीखते क्यों हैं? और यदि वन में नहीं गये हैं तो सामने दीखने पर भी हृदय में जलन क्यों होती है? अतः प्रेम में मिलन और विरह दोनों साथ-साथ रहते हैं-

अरबरात मिलिबे को निसिदिन,
मिलेइ रहत मनु कबहुँ मिलै ना।
‘भगवतरसिक’ रसिक की बातें,
रसिक बिना कोउ समुझि सकै ना।।
‘अरबरात मिलिबे को निसिदिन मिलेइ रहत’

-यह मिलन है और ‘मनु कबहुँ मिलै ना’-यह विरह है। राधा जी सखी से कहती हैं कि तुम धन्य हो जो श्रीकृष्ण को देखती हो! मैंने तो आज तक श्रीकृष्ण को देखा ही नहीं! कारण कि जब श्रीकृष्ण सामने आये तो राधा जी की दृष्टि उनके कर्णकुण्डल में ही अटक गयी, स्थिर हो गयी, उससे आगे बढ़ी ही नहीं! फिर वे श्रीकृष्ण को कैसे देखें?
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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