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मेरे तो गिरधर गोपाल
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अगर साधक साध्य के बिना रहता है तो समझना चाहिये कि वह साध्य के सिवाय अन्य (भोग तथा संग्रह)- का भी साधक है। उसने अपने मन में दूसरे को भी सत्ता दी है। अगर साध्य साधक के बिना रहता है तो समझना चाहिये कि साध्य के सिवाय साधक का अन्य भी कोई साध्य है अर्थात भोग तथा संग्रह भी साध्य है। हृदय में नाशवान का जितना महत्त्व है, उतनी ही साधकपनें में कमी है। साधकपनें में जितनी कमी रहती है, उतनी ही साध्य से दूरी रहती है। पूर्ण साधक होने पर साध्य की प्राप्ति हो जाती है।

शरीर को मैं, मेरा तथा मेरे लिये मानने से ही साधक को साध्य की अप्राप्ति दीखती है। साध्य के सिवाय अन्य की सत्ता स्वीकार न करना ही उसकी प्राप्ति का बढ़िया उपाय है। इसलिये साधक की दृष्टि केवल इस तरफ रहनी चाहिये कि संसार नहीं है। संसार का पहले भी अभाव था, बाद में भी अभाव हो जायगा और बीच में भी वह प्रतिक्षण अभाव में जा रहा है। संसार की स्थिति है ही नहीं। उत्पत्ति-प्रलय की धारा ही स्थिति रूप से दीखती है।

साधक के लिये साध्य में विश्वास और प्रेम होना बहुत जरूरी है। विश्वास और प्रेम उसी साध्य में होना चाहिये, जो विवेक-विरोधी न हो। मिलने और बिछुड़ने वाली वस्तु में विश्वास और प्रेम करना विवेक-विरोधी है। विश्वास और प्रेम-दोनों में कोई एक भी हो जाय तो दोनों स्वतः हो जायँगे। विश्वास दृढ़ हो जाय तो प्रेम अपने-आप हो जायगा। अगर प्रेम नहीं होता तो समझना चाहिये कि विश्वास में कमी है अर्थात साध्य (परमात्मा)- के विश्वास के साथ संसार का विश्वास भी है। पूर्ण विश्वास होने पर एक सत्ता के सिवाय अन्य (संसार)-की सत्ता ही नहीं रहेगी। साध्य में विश्वास की कमी होगी तो साधन में भी विश्वास की कमी होगी अर्थात साध्य के सिवाय अन्य इच्छाएँ भी होंगी। जितनी दूसरी इच्छा है, उतनी ही साधन में कमी है।

सम्पूर्ण इच्छाओं के मूल में एक परमात्मा की ही इच्छा है। उसी पर सम्पूर्ण इच्छाएँ टिकी हुई हैं। हमसे भूल यह होती है कि अपनी इस स्वाभाविक (परमात्मा की) इच्छा को हम शरीर की सहायता से पूरी करना चाहते हैं। वास्तव में परमात्मा की प्राप्ति में शरीर अथवा संसार की किंचिन्मात्र भी जरूरत नहीं है। परमात्मा अपने में हैं; अतः कुछ न करने से ही उनका अनुभव होगा। कुछ करने के लिये तो शरीर की आवश्यकता है, पर कुछ न करने के लिये शरीर की क्या आवश्यकता है? कुछ देखने के लिये नेत्रों की आवश्यकता है, पर कुछ न देखने के लिये नेत्रों की क्या आवश्यकता है? हाँ, नामजप, कीर्तन आदि साधन अवश्य करने चाहिये; क्योंकि इनको करने से कुछ न करने की सामर्थ्य आती है।

हम परमात्मा के अंश हैं, इसलिये हमारा सम्बन्ध परमात्मा के साथ ही है। हमारा सम्बन्ध न तो शरीर के साथ है और न शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध- इन विषयों के साथ है। हम परमात्मा के हैं- इस सत्य पर साधक को दृढ़ विश्वास करना चाहिये। अगर दृढ़ विश्वास न कर सके तो भगवान से माँगे। हम शरीर-संसार के हैं- यह भूल है। भूल को भूल समझने में देरी लगती है, पर भूल समझने पर फिर भूल मिटने में देरी नहीं लगती।

यह नियम है कि परमात्मा की प्राप्ति असत् (पदार्थ और क्रिया)- के द्वारा नहीं होती, प्रत्युत असत के सम्बन्ध-विच्छेद से होती है। असत से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये साधक को तीन बातों को स्वीकार करने की आवश्यकता है-

1.मेरा कुछ भी नहीं है।
2.मेरे को कुछ नहीं चाहिये।
3.मैं कुछ नहीं हूँ।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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