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मेरे तो गिरधर गोपाल
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भगवान मेरे हैं- इसके समान कोई बात है नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं। इस बात का हमें पता लग गया तो अब मौज हो गयी। इतने दिन दूसरों की गुलामी करके मुफ्त में दुःख पाया। अब हम सबको प्रणाम करते हैं। सभी श्रेष्ठ हैं, पर हमें उनसे मतलब नहीं। हमें केवल भगवान से ही मतलब है। परन्तु भगवान से भी हमें कुछ लेना नहीं है, कोई गरज नहीं करनी है।

ढूँढा सब जहाँ में, पाया पता तेरा नहीं।
जब पता तेरा लगा, अब पता मेरा नहीं।

वास्तव में मैं है ही नहीं, केवल तू-ही-तू है। छोटा-बड़ा, अच्छा-मन्दा सब तू-ही-तू है। अब हमें असली चीज मिल गयी। आज पता लग गया कि तू ही है, मैं हूँ ही नहीं। न मैं है, न मेरा है। केवल तू है और तेरा है। अब आनन्द-ही-आनन्द है! पूर्ण आनन्द, अपार आनन्द, सम आनन्द, शान्त आनन्द, घन आनन्द, अचल आनन्द, बाहर आनन्द, भीतर आनन्द, केवल आनन्द-ही-आनन्द!

मनुष्य के भीतर जो इच्छा रहती है, उसके तीन भेद हैं- कामना, जिज्ञासा और लालसा। सांसारिक भोग और संग्रह की ‘कामना’ होती है, स्वरूप (निर्गुण तत्त्व)– की ‘जिज्ञासा’ होती है और भगवान् (सगुण तत्त्व)– की ‘लालसा’ होती है।

संसार की जो कामना है, वह भूल से पैदा हुई है। कारण कि हमारे में एक तो परमात्मा का अंश है और एक प्रकृति का अंश है। परमात्मा का अंश जीवात्मा है- ‘ममैवांशो जीवलोके’ और प्रकृति का अंश शरीर है- ‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि’मैं क्या हूँ?– इस प्रकार स्वरूप (जीवात्मा) – को जानने की इच्छा ‘जिज्ञासा’ है और भगवान् को कैसे मिलें? उनमें प्रेम कैसे हो?– इस प्रकार भगवान् को पाने की इच्छा ‘लालसा’ है। जिज्ञासा और लालसा – ये दोनों इच्छाएँ अपनी हैं, पर कामना अपनी नहीं है। कारण कि जिज्ञासा और लालसा सत्-तत्त्व की होती है, पर कामना असत् की होती है।

कामनाएँ शरीर को लेकर होती हैं। बहुत-से भाई-बहन शरीर को मुख्य मानते हैं। पर वास्तव में शरीर मुख्य नहीं है, प्रत्युत जो शरीर में अपना रहना मानता है, वह शरीरी मुख्य है। शरीर तो कपड़े की तरह है। जैसे मनुष्य पुराने कपड़ो को छोड़कर नये कपड़े पहन लेता है, ऐसे ही वह (शरीरी) पुराने शरीरों को छोड़कर नये शरीर धारण कर लेता है। शरीर हरदम बदलता है। इसलिये शरीर को लेकर जो कामनाएँ होती हैं, वे अपनी नहीं हैं।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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