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मेरे तो गिरधर गोपाल
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शरीर के साथ सम्बन्ध रखते हुए मनुष्य कर्म करने से भी बँधता है और कर्म न करने से भी बँधता है। परन्तु शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर वह कर्म करते हुए भी वास्तव में कुछ नहीं करता- ‘कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः’जैसे, दही के साथ घी भी रहता है, पर दही में से घी निकाल दिया जाय तो फिर वह उसमें (छाछ में) नहीं मिलता, अलग हो जाता है। ऐसे ही शरीर से अलग होने के बाद फिर स्वयं उससे नहीं मिलता। वास्तव में वह मिला हुआ होने पर भी अलग ही है, पर मिला हुआ मान लेता है। तात्पर्य है कि जड़ चेतन तक नहीं पहुँचता, पर चेतन जड़ तक पहुँचता है और उसके साथ सम्बन्ध मान लेता है तथा जड़ में होने वाली क्रियाओं को, विकारों को अपने में मान लेता है। अगर सम्बन्ध न माने तो बन्धन है ही नहीं और मुक्ति स्वाभाविक है।
एक बात साधक मात्र के हृदय में बैठ जानी चाहिये कि हम सब भगवान् के पुत्र हैं- ‘अमृतस्य पुत्राः’ । कारण कि हम सब भगवान् के ही अंश है- ‘ममैवांशो जीवलोके’। हमसे यही गलती होती है कि हम जिनके अंश हैं, उन भगवान् को अपना न मानकर जड़ वस्तुओं (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि)- को अपना मान लेते हैं- ‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’|जड़ वस्तुओं को अपना मानने से ही बन्धन हुआ है। यदि अपना न मानें तो मुक्ति स्वतःसिद्ध है। जड़ वस्तु अपनी नहीं है। यदि अपनी होती तो सदा अपने साथ रहती। न शरीर साथ रहेगा, न इन्द्रियाँ साथ रहेंगी, न मन साथ रहेगा, न बुद्धि साथ रहेगी, न प्राण साथ रहेंगी, न मन साथ रहेगा, न बुद्धि साथ रहेगी, न प्राण साथ रहेंगे। कोई भी चीज साथ में नहीं रहेगी। अनन्त ब्रह्माण्डों में अनन्त चीजें हैं, पर उनमें से केश-जितनी चीज भी हमारी नहीं है। फिर शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण अपने कैसे हुए ?
एक वस्तु अपनी होती है और एक वस्तु अपनी मानी हुई होती है। शरीर आदि अपने नहीं हैं, प्रत्युत अपने माने हुए हैं। जैसे कोई खेल होता है तो उस खेल में कोई राजा बनता है, कोई रानी बनती है, कोई सिपाही बनते हैं तो वे सब माने हुए होते हैं, असली नहीं होते। इसी तरह संसार में व्यक्ति और पदार्थ केवल व्यवहार के लिये अपने माने हुए होते हैं। वे वास्तव में अपने नहीं होते। अपना न स्थूल शरीर है, न सूक्ष्मशरीर है, न कारण शरीर है। जब अपना कुछ है ही नहीं तो फिर हमें क्या करना चाहिये? अपने तो केवल भगवान ही हैं। हम उन्हीं के अंश हैं। भगवान के सिवाय और कोई भी अपना नहीं है। भगवान के सिवाय जो कुछ है, सब मिला हुआ है और छूटने वाला है।विचार करें, आप आये तो कोई वस्तु साथ लाये क्या? और जाते हुए कोई वस्तु साथ ले जाओगे क्या? सब कुछ यहीं पड़ा रहेगा। परन्तु उनको अपने काम में लेते रहने से आदत पड़ गयी, जिससे उसकी ममता छोड़ना कठिन हो रहा है। गाढ़ नींद में आपको इन्द्रियाँ -अन्तःकरण से कुछ भी अनुभव नहीं होता। इसलिये जगने पर कहते हैं कि मैं ऐसा सुख से सोया कि कुछ पता नहीं था अर्थात सबके अभाव का और सुख के भाव का अनुभव होता है। इससे सिद्ध हुआ कि इन्द्रियों के बिना भी हमें सुख का अनुभव हुआ। कारण यह है कि जीव स्वाभाविक ही सुख रूप है-
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।
जीव में स्वाभाविक ही सुख है, दुःख है ही नहीं। दुःख-सन्ताप जड़ के सम्बन्ध से ही होते हैं। मन में जो पुरानी बात याद आती है कि बालकपन में मैं खेलता था, पढ़ता था, जवानीपन में मैं अमुक कार्य करता था, वह याद आना भी मन में ही है, हमारे में नहीं है। जो काम शरीर से होता है, वह हमारे से नहीं होता। स्थूल और सूक्ष्म-शरीर से भोगे गये भोग हमारे में नहीं हैं। हम उनसे अलग हैं। यह विशेष ध्यान देने की बात है। हमारे साथ कोई भी चीज रहने वाली नहीं है। हम शरीर नहीं हैं, प्रत्युत भगवान् के साक्षात् अंश हैं। हमारे में कर्तृत्व-भोक्तृत्व नहीं हैं। गीता ने बहुत बढ़िया बात कही है-
‘शरीरस्थोअपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमश:)
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