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मेरे तो गिरधर गोपाल
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अभिन्नता दो होते हुए भी हो सकती है; जैसे बालक की माँसे, सेवक की स्वामी से, पत्नी की पति से अथवा मित्र की मित्र से अभिन्नता होती है। इसलिये भक्ति में आरम्भ से ही भक्त की भगवान् से अभिन्नता हो जाती है-‘साह ही को गोतु गोतु होती है गुलाम को’।कारण कि भक्त अपना अलग अस्तित्व नहीं मानता। उसमें यह भाव रहता है कि भगवान् ही हैं, मैं हूँ ही नहीं।

प्रेम में माधुर्य है। अतः ‘प्रभु मेरे हैं’ ऐसे अपना पन होने से भक्त भगवान् का ऐश्वर्य (प्रभाव) भूल जाता है। जैसे, महारानी का बालक उसको ‘माँ मेरी है’ ऐसे मानता है तो उसका प्रभाव भूल जाता है कि यह महारानी है। एक बाबा जी ने गोपियों से कहा कि कृष्ण बड़े ऐश्वर्यशाली हैं, उनके पास ऐश्वर्य का बड़ा खजाना है, तो गोपियाँ बोलीं कि महाराज! उस खजाने की चाबी तो हमारे पास है! कन्हैया के पास क्या है? उसके पास तो कुछ भी नहीं! तात्पर्य है कि माधुर्य में ऐश्वर्य की विस्मृति हो जाती है। संसार में तो ऐश्वर्य का ही ज्यादा आदर है, पर भगवान् में माधुर्य का ज्यादा आदर है। जिस समय भगवान् में माधुर्य-शक्ति प्रकट रहती है, उस समय ऐश्वर्य-शक्ति दूर भाग जाती है, पास में नहीं आती। वास्तव में भक्त भगवान् के ऐश्वर्य को देखता ही नहीं। कारण कि भगवान् को भगवान् समझकर प्रेम करना भगवान् के साथ प्रेम नहीं है, प्रत्युत भगवत्ता (ऐश्वर्य) के साथ प्रेम है। जैसे, धन को देखकर धनवान् के साथ स्नेह करना वास्तव में धनवत्ता के साथ स्नेह करना है।

प्रेम की जागृति में भगवान् की कृपा ही खास कारण है। प्रेम की वृद्धि के लिये विरह और मिलन भी भगवान् की कृपा से ही प्राप्त होते हैं। आदरपूर्वक भगवल्लीला का श्रवण, वर्णन, चिन्तन तथा भगवन्नाम का कीर्तन आदि साधनों के बल से प्रेम की प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत समय का सदुपयोग होता है, जिसको वैष्णवाचार्यों ने ‘कालक्षेप’ कहा है। भगवान् की कृपा प्राप्त होती है उनकी शरण होने में संसार के आश्रय का त्याग मुख्य है।
संसार से अलग होने पर संसार का ज्ञान होता है और भगवान् से अभिन्न होने पर भगवान् का ज्ञान होता है। कारण कि जीव संसार से अलग है और भगवान् से अभिन्न है-यह वास्तविक, यथार्थ बात है। परन्तु शरीर-संसार से एकता मानने से संसार का ज्ञान नहीं होता और संसार का ज्ञान न होने से ही संसार की तरफ खिंचाव होता है। इसी तरह भगवान् से भिन्नता मानने से भगवान् का ज्ञान नहीं होता। संसार अपना नहीं है- इस तरह संसार का ज्ञान होने से संसार से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। भगवान् अपने हैं- इस तरह भगवान् का ज्ञान होने से भगवान् के साथ अभिन्नता होकर प्रेम हो जाता है।

हे नाथ! अब तो आपको हमारे पर कृपा करनी ही पड़ेगी। हम भले-बुरे कैसे ही हों, आपके ही बालक हैं। आपको छोड़कर हम कहाँ जायँ? किससे बोलें? हमारी कौन सुने? संसार तो सफा जंगल है। उससे कहना अरण्यरोदन (जंगल में रोना) है। आपके सिवाय कोई सुनने वाला नहीं है। महाराज! हम किससे कहें? हमारे पर किसको दया आती है? अच्छे-अच्छे लक्षण हों तो दूसरा भी कोई सुन ले।

हमारे- जैसे दोषी, अवगुणी की बात कौन सुने? कौन अपने पास रखे? हे गोविन्द-गोपाल! यह तो आप ही हैं, जो गायों और बैलों को भी अपने पास रखते हैं, चारा देते हैं। हम तो बस, बैलों की तरह ही हैं! बिलकुल जंगली आदमी है! आप ही हमें निभाओगे। और कौन है, किसकी हिम्मत है कि हमें अपना ले? ऐसी शक्ति भी किसमें है? हमें रोटी दे, कपड़ा दे, मकान दे, खर्चा करे, और हमारे से क्या मतलब सिद्ध होगा? ऐसे निकम्मे आदमी को कौन सँभाले? कोई गुण-लक्षण हों तो सभाँले। यह तो आप दया करते हैं, तभी काम चलता है, नहीं तो कौन परवार करता है?
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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