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मेरे तो गिरधर गोपाल
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शम (शान्ति)-का अर्थ है- कुछ न करना। जब तक ‘करने’ के साथ सम्बन्ध है, तब तक प्रकृति के साथ सम्बन्ध है और जब तक प्रकृति के साथ सम्बन्ध है, तब तक अशान्ति है, दुःख है, जन्म-मरण है। प्रकृति के साथ सम्बन्ध ‘न करने’ से मिटेगा। कारण कि क्रिया और पदार्थ दोनों प्रकृति के हैं। चेतन-तत्त्व में न क्रिया है, न पदार्थ। क्रिया अनित्य है, अक्रियपना नित्य है। क्रिया का आरम्भ और अन्त होता है, पर अक्रियपना नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है। इसलिये परमात्मप्राप्ति के लिये ‘शम’ अर्थात् कुछ न करना ही कारण है। हाँ, अगर इस शान्ति का उपभोग किया जायगा तो परमात्मा की प्राप्ति नहीं होगी। ‘मैं शान्त हूँ’- इस प्रकार शान्ति में अहंकार लगाने से और ‘बड़ी शान्ति है’- इस प्रकार शान्ति में राजी होने से शान्ति का उपभोग हो जाता है। इसलिये शान्ति में व्यक्तित्व न मिलाये, प्रत्युत ऐसा समझे कि शान्ति स्वतः है। शान्ति का उपभोग करने से शान्ति नहीं रहेगी, प्रत्युत चंचलता आ जायगी अथवा नींद आ जायगी। उपभोग नहीं करने से शान्ति स्वतः रहेगी। बिना क्रिया और बिना अभिमान के जो स्वतः शान्ति होती है, वह ‘योग’ है। कारण कि उस शान्ति का कोई कर्ता या भोक्ता नहीं है। जहाँ कर्ता या भोक्ता होता है, वहाँ भोग होता है। भोग होने पर संसार में स्थिति होती है।

सम्पूर्ण क्रियाएँ और पदार्थ संसार के और संसार के लिये ही हैं। इसलिये कर्मयोगी इनको अपने और अपने लिये न मानकर संसार की ही सेवा में लगा देता है। सेवा में लगाने से उसका क्रिया और पदार्थ रूप संसार से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। प्रकृति श्रम रूप है और परमात्म तत्त्व विश्राम रूप है। इसलिये ज्ञान योगी क्रिया और पदार्थ से असंग होकर विश्राम को स्वीकार करता है। विश्राम को स्वीकार करने का तात्पर्य है- अपना जो चिन्मय सत्ता मात्र स्वरूप है, उसमें स्वतः-सिद्ध स्थिति का अनुभव करना। परन्तु भक्ति योगी भगवदाश्रय को स्वीकार करता है अर्थात् अपना चिन्मय सत्ता मात्र स्वरूप भी जिसका अंश है, उस भगवान के आश्रय को स्वीकार करता है। सेवा और विश्राम से मुक्ति होती तथा भगवदाश्रय से प्रेम की प्राप्ति होती है।

यह एक सिद्धान्त है कि जो सर्वव्यापक तत्त्व होता है, उसकी प्राप्ति किसी क्रिया से नहीं होती। क्रिया करते ही हम उससे अलग होते हैं। अगर हम कुछ भी क्रिया नहीं करेंगे तो उस परमात्मतत्त्व में ही स्थिति होगी। इसलिये साधक चलते-फिरते, उठते-बैठते हरदम शान्त रहने का स्वभाव बना ले।

शरत्पूर्णिमा की चाँदनी रात में जब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी बाँसुरी बजानी आरम्भ की, तब उसकी मधुर एवं चित्ताकर्षक ध्वनि को सुनकर गोपियाँ जिस अवस्था में थीं, उसी अवस्था में श्रीकृष्ण से मिलने के लिये वेग पूर्वक चल पड़ीं। यह प्रेम की ऐसी विलक्षण स्थिति थी कि स्वयं गोपियों को ही पता नहीं था कि हम कौन हैं! कहाँ जा रही हैं! क्यों जा रही हैं! भगवान् का सब कुछ दिव्य है, अलौकिक है, चिन्मय है! अतः उनकी बाँसुरी भी दिव्य थी और उसकी ध्वनि भी। उस दिव्य ध्वनि को सुनने पर गोपियों में भी जडता नहीं रही और वे चिन्मय होकर चिन्मय से मिलने के लिये चल पड़ी!

‘काम’ (लौकिक श्रृंगार)-में स्त्री और पुरुष दोनों ही एक-दूसरे से सुख लेना चाहते हैं, एक-दूसरे को अपनी ओर आकर्षित करना चाहते हैं। इसलिये उनमें विशेष सावधानी रहती है और वे अपने शरीर को सजाते हैं। परन्तु ‘प्रेम’ में सुख लेने का, अपनी ओर खींचने का किंचिन्मात्र भी भाव न होने से यह सावधानी नहीं रहती, प्रत्युत अपने शरीर की भी विस्मृति हो जाती है, इसीलिये गोपियाँ अपने को सजाना, श्रृंगार करना भूल गयीं और वंशीध्वनि सुनते ही वे जैसी थीं, वैसी ही अस्त-व्यस्त वस्त्रों के साथ चल पड़ी-‘व्यत्यस्तवस्त्राभरणाः काश्चित् कृष्णान्तिकं ययुः’ (श्रीमदा0 10/29/7)।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमश:)

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