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मेरे तो गिरधर गोपाल
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ज्ञानमार्ग में पहले साधक समझता है, फिर वह मान लेता है। भक्तिमार्ग में पहले मानता है, फिर समझ लेता है। तात्पर्य है कि ज्ञान में विवेक मुख्य है और भक्ति में श्रद्धा-विश्वास। ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग में यही फर्क है। दोनों मार्गों में एक-एक विलक्षणता है। ज्ञानमार्ग वाला साधक तो आरम्भ से ही ब्रह्म हो जाता है, ब्रह्म से नीचे उतरता ही नहीं, पर भक्त सिद्ध हो जाने पर, परमात्मा की प्राप्ति हो जाने पर भी ब्रह्म नहीं होता, प्रत्युत ब्रह्म ही उसके वश में हो जाता है! गोस्वामी जी महाराज ने सब ग्रन्थ लिखने के बाद अन्त में विनय-पत्रिका की रचना की। उसमें वे छोटे बच्चे की तरह सीता माँ से कहते हैं-
कबहुँक अंब, अवसर पाइ।
मेरिऔ सुधि द्याइबी, कछु करुन-कथा चलाइ।
दीन, सब अँगहीन, छीन, मलीन, अघी अघाइ ।
नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी-दास कहाइ।
बूझिहैं ‘सो है कौन’, कहिबी नाम दसा जनाइ।
सुनत राम कृपालु के मेरी बिगरिऔ बनि जाइ।
जानकी जगजननि जन की किये बचन सहाइ।
तरै तुलसीदास भव तव नाथ-गुन-गन गाइ।
तात्पर्य है कि सिद्ध, भगवत्प्राप्त होने पर भी भक्त अपने को सदा छोटा ही समझते हैं। वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो ऐसे भक्त ही वास्तव में ज्ञानी हैं। गीता में भी भगवान ने गुणातीत महापुरुष को ज्ञानी नहीं कहा, प्रत्युत अपने भक्त को ही ज्ञानी कहा है।
भगवान् ने ज्ञानमार्गी को ‘सर्ववित्’ (सर्वज्ञ) भी नहीं कहा, प्रत्युत भक्त को ही ‘सर्ववित्’ कहा है- ‘स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत’।गोस्वामी जी महाराज ने कहा है-
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई।
भक्ति के बिना भीतर का सूक्ष्म मल (अहम्) मिटता नहीं। वह मल मुक्ति में तो बाधक नहीं होता, पर दार्शनिकों और उनके दर्शनों में मतभेद पैदा करता है। जब वह सूक्ष्म मल मिट जाता है, तब मतभेद नहीं रहता। इसलिये भक्त ही वास्तविक ज्ञानी है।
शरीर हमारा स्वरूप नहीं है। शरीर पृथ्वी पर ही (माँ के पेट में) बनता है, पृथ्वी पर ही घूमता-फिरता है और मरकर पृथ्वी में ही लीन हो जाता है। इसकी तीन गतियाँ बतायी गयी हैं- या तो इसकी भस्म हो जायगी, या मिट्टी हो जायगी, या विष्ठा हो जायगी। इसको जला देंगे तो भस्म बन जायगी, पृथ्वी में गाड़ देंगे तो मिट्टी बन जायगी और जानवर खा लेंगे तो विष्ठा बन जायगी। इसलिये शरीर की मुख्यता नहीं है, प्रत्युत अव्यक्त स्वरूप की मुख्यता है-
भूमा अचल शाश्वत अमल सम ठोस है तू सर्वदा।
यह देह है पोला घड़ा बनता बिगड़ता है सदा।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)
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