17

मेरे तो गिरधर गोपाल
17-

गीता भगवान के समग्ररूप को मानती है, उसी को महत्त्व देती है और उसकी प्राप्ति में ही मानव-जीवन पूर्णता मानती है। सब कुछ भगवान ही हैं- ‘वासुदेवः सर्वम्’ -यह भगवान का समग्ररूप है। सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, द्विभुज, चतुर्भुज, सहस्रभुज आदि रूप तथा पदार्थ और क्रियारूप सम्पूर्ण जगत, सम्पूर्ण जीव, सम्पूर्ण जीव, सम्पूर्ण देवता- ये सब-के-सब भगवान के समग्ररुप के अन्तर्गत आ जाते हैं। इसलिये जो समग्र क्को जान लेता है, उसके लिये कुछ भी जानना शेष नहीं रहता- ‘यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते’।समग्र को जानने का मुख्य साधन है-शरणागति। इसलिये भगवान् ने गीतोपदेश का पर्यवसान शरणागति में ही किया है- ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।’भगवान् ने गीता भर में केवल शरणागति को ही ‘सर्वगुह्यतम’ (सबसे अत्यन्त गोपनीय) कहा है- ‘सर्वगुह्यतमं भूयःश्रृणु’।

वास्तव में सत्ता एक ही है। उस एक परमात्मा की सत्ता के अधीन जीव की सत्ता है और जीव के अधीन जगत् की सत्ता है। जीव और जगत्-दोनों परमात्मा में ही भासित होते हैं। गीता के सातवें अध्याय में भगवान ने जीव को अपनी ‘परा प्रकृति’ और जगत् को अपनी ‘अपरा प्रकृति’ बताया है। परा और अपरा-दोनों भगवान् की शक्तियाँ हैं। अतः इनको अपनी प्रकृति बताने में भगवान् का तात्पर्य है कि ये दोनों मेरे से अलग नहीं हैं। शक्तिमान् से अलग शक्ति की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती। शक्तिमान् शक्ति के बिना रह सकता है, पर शक्ति शक्तिमान के बिना नहीं रह सकती।अब शंका होती है कि जब जीव (परा) और जगत् (अपरा)-दोनों ही भगवान् से अभिन्न हैं तो फिर जगत् की सत्ता अलग क्यों दीखती है? इसके उत्तर में भगवान् ने कहा है- ‘जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्’ अर्थात जीव ने ही जगत् को धारण किया है अर्थात् जगत् को सत्ता और महत्ता दी है। जीव केवल मेरा (भगवान का) ही अंश है- ‘ममैवांशो जीवलोके’।परंतु यह मिलने और बिछुड़ने वाले शरीर -इंद्रियाँ मन बुद्धि को अपना मान लेता है- 'मन: षष्ठानींद्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति' (गीता 15।7)। जगत् के साथ अपना सम्बन्ध मानने के कारण ही यह जन्म-मरण के चक्कर में पड़कर दुःख पा रहा है। जीव के द्वारा जगत् से माना हुआ यह सम्बन्ध ही सम्पूर्ण योनियों का कारण है- ‘एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय’ अर्थात् इन दोनों के माने हुए संयोग के कारण ही सम्पूर्ण स्थावर-जंगम प्राणी पैदा होते हैं। तात्पर्य हुआ कि जीव के द्वारा अपरा से जोड़ा गया सम्बन्ध ही मूल दोष है, जिससे सम्पूर्ण दोषों की उत्पत्ति होती है।

‘वासुदेवः सर्वम्’ अर्थात् सब कुछ भगवान् ही हैं- यह गीता का सर्वोपरि सिद्धान्त है। इसका अनुभव करने का मनुष्य मात्र अधिकारी है। प्रत्येक देश, वेश, वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदि का मनुष्य भगवान् का भक्त होकर ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव कर सकता है। कारण कि भगवान् की प्राप्ति शरीर के द्वारा नहीं होती, प्रत्युत शरीर के सम्बन्ध-विच्छेद से होती है। शरीर से सम्बन्ध विच्छेद के लिये तीन बातों को जानना आवश्यक है- शरीर ‘मैं’ नहीं हूँ, शरीर ‘मेरा’ नहीं है और शरीर ‘मेरे लिये’ नहीं है। यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु मिलने और बिछुड़ने वाली होती है, वह अपनी और अपने लिये नहीं होती। एक भगवान ही हमारे ऐसे साथी हैं, जो सदा हमारे साथ रहते हैं, कभी हमसे बिछुड़ते नहीं। परन्तु जो मनुष्य मिलने और बिछुड़ने वाली वस्तुओं में ही उलझे रहते हैं, नाशवान भोगों में और संग्रह में ही लगे रहते हैं, वे सदा साथ रहते हुए भी भगवान् को न प्राप्त होकर बार-बार संसार में जन्मते-मरते रहते हैं- ‘अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि’।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

Comments

Popular posts from this blog

शुद्ध भक्त चरण रेणु

श्री शिक्षा अष्टकम

श्री राधा 1008 नाम माला