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मेरे तो गिरधर गोपाल
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शरीर-संसार की इच्छा के कई नाम हैं; जैसे-कामना, आशा, वासना, तृष्णा आदि। अमुक वस्तु मिल जाय, धन मिल जाय, भोग मिल जाय, कुटुम्ब मिल जाय, घर मिल जाय-ये सब इच्छाएँ सच्ची नहीं हैं। ये इच्छाएँ सभी योनियों में होती हैं। मनुष्य की इच्छाएँ और होती हैं, कुत्ते की इच्छाएँ और होती हैं, सिंह की इच्छाएँ और होती हैं। ऐसे ही गाय-भैंस, भेड़-बकरी, गधा, ऊँट आदि की अलग-अलग इच्छाएँ भी बदलती रहती हैं। वृक्षों को खाद तथा पानी की इच्छा होती है। ये मिलें तो वृक्ष हरे हो जाते हैं। ये न मिलें तो वे सूख जाते हैं। परन्तु जिज्ञासा और लालसा-ये दो इच्छाएँ केवल मनुष्य शरीर में ही होती हैं, अन्य शरीरों में नहीं होतीं। कारण कि अन्य शरीर भोग योनियाँ हैं। उनमें केवल भोगने की इच्छा है।

जिज्ञासा और लालसा असुरों-राक्षसों में नहीं होती, भूत-प्रेत-पिशाच में नहीं होती। यह देवताओं में हो सकती है, पर उनमें भी भोग भोगने की इच्छा मुख्य रहती है। जैसे-मनुष्य लोक में ज्यादा धनी लोगों में भोग भोगने की और धन का संग्रह करने की इच्छा मुख्य रहती है तो वे भगवान् में नहीं लगते। कलकत्ते के एक धनी आदमी से मैंने पूछा कि तुम्हारे पास इतने रूपये कमाकर क्या करोगे? उसने बड़ी सज्जनता से उत्तर दिया कि ‘स्वामीजी! इसका उत्तर हमारे पास नहीं है।’ केवल एक ही धुन है-धन कमाओ, धन कमाओ। उस धनका करेंगे क्या-इस तरफ ख़याल नहीं है। पूरा धन भोग तो सकते नहीं; अतः छोड़कर मारना पड़ेगा।

केवल भोगों की इच्छा रखने वाले मनुष्य कहलाने योग्य नहीं हैं। मनुष्य कहलाने योग्य वही हैं, जिसमें अपने स्वरूप की जिज्ञासा और परमात्मा की लालसा है। अपने स्वरूप को जानने की और परमात्मा को प्राप्त करने की इच्छा मनुष्य में ही हो सकती है। यह सामर्थ्य मनुष्य में ही है। परन्तु इसको छोड़कर जो भोग और संग्रह में लगे हुए हैं, उनमें मनुष्यपना नहीं है, प्रत्युत पशुपना है। भागवत में इसको पशुबुद्धि कहा गया है- ‘पशुबुद्धिमिमां जहि’ मैं कौन हूँ? मेरा मालिक कौन है? यह जानने की इच्छा मनुष्य बुद्धि है।
इस दुनियाँ में एक अँधेरा, सबकी आँख में जो छाया।
जिसके कारण सूझ पड़े नहीं, कौन हूँ मैं कहाँ से आया।
कौन दिशा को जाना मुझको, किसको देख मैं ललचाया।
कौन है मालिक इस दुनिया का, किसने रची है यह माया।

- यह जिज्ञासा मनुष्य में ही हो सकती है। पशुओं में गाय बड़ी पवित्र है। मल और मूत्र किसी का भी पवित्र नहीं होता, पर गाय का गोबर और गोमूत्र भी पवित्र होता है! पवित्रता के लिये गोमूत्र छिड़का जाता है, गोबर का चौका लगाया जाता है। ऐसी पवित्र होने पर भी गाय में यह जानने की शक्ति नहीं है कि मेरा स्वरूप क्या है? परमात्मा क्या है? इसको मनुष्य ही जान सकता है। मनुष्य जन्म के सिवाय और कोई जानने की जगह नहीं है। यह मौका मनुष्य जन्म में ही है। इस जन्म में ही हम अपने-आप को जान सकते हैं, भगवान् को प्राप्त कर सकते हैं, भगवान् में प्रेम कर सकते हैं। अगर मनुष्य शरीर में आकर यह काम नहीं किया तो मनुष्य शरीर निरर्थक गया!

कामनाएँ सदा बलवती रहती हैं, पर जिज्ञासा और लालसा सदा एक ही रहती है, कभी बदलती नहीं। कारण कि ये दोनों खुद की हैं। खुद कभी बदलता नहीं, शरीर बदलता रहता है। ऐसे ही इच्छाएँ बदलती हैं, भाव बदलते हैं, रहन-सहन बदलता है। जो बदलता है, वह हमारा स्वरूप नहीं है। इसलिये शुकदेव जी ने राजा परीक्षित् को कहा-

त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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