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मेरे तो गिरधर गोपाल
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कर्मों से मनुष्य क्रिया और पदार्थ में फँसता है, पर कर्मयोग इन दोनों से ऊँचा उठाता है। इसलिये कल्याण करने की शक्ति कर्म में नहीं है, प्रत्युत कर्मयोग में है; क्योंकि कर्मों में योग ही कुशलता है- ‘योगः कर्मसु कौशलम्’।साधारण मनुष्य कर्म करते हि रहते हैं और कर्मों का फल भी भोगते ही रहते हैं अर्थात् जन्मते-मरते रहते हैं। कर्म करने से उनका कल्याण नहीं होता। परन्तु कर्मयोग से कल्याण हो जाता है। कर्मयोग में निःस्वार्थ भाव से सेवा करने पर संसार का त्याग हो जाता है। सांख्ययोग में साधक सबको छोड़कर अपने स्वरूप में स्थित होता है। कर्मयोग में करने की मुख्यता है और सांख्ययोग में विवेक-विचार की मुख्यता है। इस प्रकार कर्मयोग और सांख्ययोग में बड़ा फर्क है। फर्क होते हुए भी दोनों का फल एक ही है। दोनों के द्वारा संसार से ऊँचा उठने पर मुक्ति हो जाती है। ये दोनों लौकिक साधन हैं; क्योंकि शरीर (जड़) और शरीरी (चेतन)- ये दोनों विभाग हमारे देखने में आते हैं, पर भगवान् देखने में नहीं आते। भगवान् को मानें या न मानें, यह हमारी मरजी है। इसमें विचार नहीं चलता। भगवान हैं- ऐसा मानना ही पड़ता है। फिर वह माना हुआ नहीं रहता, उसका अनुभव हो जाता है।

‘कर्म’ में परिश्रम है और ‘कर्मयोग’ में विश्राम है। परिश्रम पशुओं के लिये है और विश्राम मनुष्य के लिये है। शरीर की जरूरत परिश्रम में ही है। विश्राम में शरीर की जरूरत है ही नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि शरीर हमारे लिये है ही नहीं। कर्मयोग में शरीर के द्वारा होने वाला परिश्रम दूसरों की सेवा के लिये है और विश्राम अपने लिये है।
कर्मयोग और सांख्ययोग से ‘अभेद’ होता है और भक्तियोग से ‘अभिन्नता’ होती है। जहाँ-जहाँ ज्ञान का वर्णन है, वहाँ-वहाँ सत् और असत्, प्रकृति और पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, क्षर और अक्षर आदि का दो का वर्णन है; जैसे- ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’।परन्तु भक्तियोग में दो वर्णन नहीं है, प्रत्युत एक भगवान के सिवाय कुछ भी नहीं है- ‘वासुदेवः सर्वम्’।ज्ञानयोग में सत् अलग है और असत् अलग है, पर भक्तियोग में सत् भी भगवान् हैं और असत् भी भगवान् हैं- ‘सदसच्चाहमर्जुन’।अभेद की अपेक्षा अभिन्नता में एक विलक्षणता है। अभिन्नता में कभी भेद होता है, कभी अभेद होता है। इसलिये अभिन्नता में प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम होता है। कर्मयोग और सांख्ययोग के द्वारा जो अभेद होता है, उसका आनन्द प्रतिक्षण वर्धमान नहीं है। जैसे दूध उबलता है तो दूध में उथल-पुथल होती है, ऐसे ही उधल-पुथल वाला जो आनन्द है, वह भक्ति का है और जो शान्त, एकरस आनन्द है, वह ज्ञान का है।

भक्तियोग की अभिन्नता में दो बातें होती हैं- जब भक्त अपने को देखता है, तब वह भगवान् को अपना मालिक देखता है कि मैं भगवान् का दास हूँ और जब वह भगवान् को देखता है, तब वह अपने को भूल जाता है कि केवल भगवान् ही हैं; भगवान् के सिवाय कुछ है ही नहीं, हुआ ही नहीं, हो सकता ही नहीं। इस प्रकार भेद और अभेद दोनों होते रहते हैं, जिससे प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता रहता है। गोस्वामीजी महाराज ने लिखा है-

माई री! मोहि कोउ न समुझावै ।
राम-गवन साँचो किधौं सपनो, मन परतीति न आवै।
लगेइ रहत मेरे नैननि आगे, राम लखन अरु सीता।
तदपि न मिटत दाह या उर को, बिधि जो भयो बिपरीता।
दुख न रहै रघुपतिहि बिलोकत, तनु न रहै बिनु देखे।
करत न प्रान पयान, सुनहु सखि! अरुझि परी यहि लेखे।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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